संभव और असंभव
के बीच की दूरी..
व्यक्ति की सोंच और कर्म
पर निर्भर करती है..
तुम हो तो बसंत है...
नहीं तो बस अंत है...
ना उड़ाओ परिंदों को, मुंडेर से अपनी,,,
ना जाने कौन आया हो, बिछड़ के अपनों से,,,,,
ख़ामियाँ ना हों तो वो इंसान कैसा
ख़्वाहिशें ना हों तो जीवन कैसा
अंधेरा वहां नहीं है जहां तन गरीब है ,
अंधेरा वहां है जहां मन गरीब है..
स्नेह का धागा,
और संवाद की सुई...
उधड़ते रिश्तो की,
तुरपाई कर देती है..!
कुछ हँसकर बोल दिया करो
कुछ हँसकर टाल दिया करो
परेशानियाँ तो बहुत हैं यहाँ
कुछ वक़्त पर डाल दिया करो..
दस्तक और आवाज तो दूसरो के लिये है ..
जो रूह को समझ आये उसे खामोशी कहते हैं ....
मैं उस किताब का आख़िरी पन्ना था.
मैं ना होता तो कहानी ख़त्म न होती.
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