Monday, 23 May 2016

सामने मंजिल थी:

कल सामने मंज़िल थी पीछे मेरी आवाज़ें
चलता तो बिछड़ जाता रुकता तो सफ़र जाता

बात सिर्फ अल्फाजो की थी..
             "साहब "

          जज़्बात तो तुम..
      वैसे भी समझते नहीं..

मैं ऐसे मोड़ पर अपनी कहानी छोड़ आया हूँ
किसी की आँख में पानी ही पानी छोड़ आया हूँ

न किसी हमसफ़र न हमनशीं से निकलेगा,
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा । -राहत इन्दौरी

किसी काम को करने के बारे में बहुत देर तक सोचते रहना अकसर उसके बिगड़ जाने का कारण बनता है।

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