जहां तक रास्ता ले जाए चले जा
तेरी मंजिल के तो दावेदार बहुत है
रुतबा तो खामोशियों का होता है
अल्फ़ाज़ तो बदल जाते है लोग देखकर
रख लो आईने हज़ार , तसल्ली के लिए
पर सच के लिए तो , आँखें ही मिलानी प़डेगी
खुद से भी और खुदा से भी..
ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
लेकिन इक आहट जानी-पहचानी होती है
शब्दों" को दो ही लोग ढंग से पढ़ते और समझते हैं..
ज्ञान प्राप्त करने वाले,
और ग़लती निकालने वाले..
मेरे आँसू भी है़रान हुए जाते हैं
मैं रोने की ह़द तक जाकर लौट आता हूँ
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