न जाने कट गया किस बे-ख़ुदी के आलम में
वो एक लम्हा गुज़रते जिसे ज़माना लगे
यादों पर कहाँ किसका जोर है
पर तुझे सोचने का मजा ही और है
डूबी हैं मेरी उंगलियां मेरे ही लहू में
ये कांच के टुकड़ो पर भरोसे की सजा है.
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