ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़ ए सुख़न आया है,
पाँव दाबे हैं बुज़ुर्गों के तो फ़न आया है...!
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
ज़िंदगी मैं तुझे नाकाम न होने दूँगा
मेरे टूटने का ज़िम्मेदार मेरा जौहरी ही है,
उसी की ये ज़िद थी की अभी और तराशा जाए
ख्वाब तो परिंदों के होते है आसमान छूने के,
इंसान की नस्ल तो बस गिरने ओर गिराने में लगी है।
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