Friday, 19 May 2017

युग धर्म का हुंकार हुन में:

सुनू क्या सिन्धु मैं गर्जन तुम्हारा , स्वयं युग धर्म का हुंकार हूँ मैं
🌷🌹🌷🌹
सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा

मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा
🌷🌹🌷
मय खाने में क्यों यादें खुदा होती है अक्सर

मस्जिद में तो जिक्रे मय ओ मीना नहीं होता
🌹🌷🌹
बड़ा हसीन लबो लहजा था हमारा भी

बिछड़ के तुझसे अजब बेअदबी हुए हैं हम
🌷🌹🌷
मैं कतरा होकर तूफानों से जंग लड़ता हूँ

मुझे बचाना समंदर की जिम्मेदारी है
🌹🌷🌹
ये दबदबा, ये हुकूमतें, ये नशा,ये  दौलतें,

सब किरायेदार हैं, बस घर बदलते रहते हैं...
🌷🌹🌷
वो कौन है दुनिया में जिसे ग़म नहीं होता

किस घर में ख़ुशी होती है, मातम नहीं होता
🌹🌷🌹
ज़रा ये धूप ढल जाए तो उन का हाल पूछेंगे,

यहाँ कुछ साए अपने आप को ख़ुदा बताते हैं l

🌷🌹🌷
अब तो उन की याद भी आती नहीं

कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ....
🌹🌷🌹
"दूसरे क्या कर रहे हैं उसकी परवाह न करें; अपने आप से बेहतर करें, दिनोंदिन अपने ही रेकॉर्ड को तोड़े, और आप कामयाबी हासिल कर लेंगे। "
🌷🌹🌷

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