सुनू क्या सिन्धु मैं गर्जन तुम्हारा , स्वयं युग धर्म का हुंकार हूँ मैं
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सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा
मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा
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मय खाने में क्यों यादें खुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो जिक्रे मय ओ मीना नहीं होता
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बड़ा हसीन लबो लहजा था हमारा भी
बिछड़ के तुझसे अजब बेअदबी हुए हैं हम
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मैं कतरा होकर तूफानों से जंग लड़ता हूँ
मुझे बचाना समंदर की जिम्मेदारी है
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ये दबदबा, ये हुकूमतें, ये नशा,ये दौलतें,
सब किरायेदार हैं, बस घर बदलते रहते हैं...
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वो कौन है दुनिया में जिसे ग़म नहीं होता
किस घर में ख़ुशी होती है, मातम नहीं होता
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ज़रा ये धूप ढल जाए तो उन का हाल पूछेंगे,
यहाँ कुछ साए अपने आप को ख़ुदा बताते हैं l
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अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ....
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"दूसरे क्या कर रहे हैं उसकी परवाह न करें; अपने आप से बेहतर करें, दिनोंदिन अपने ही रेकॉर्ड को तोड़े, और आप कामयाबी हासिल कर लेंगे। "
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