मुख़ालफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है...
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतिराम करता हूँ...
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वो कोई दोस्त था, अच्छे दिनों का
जो पिछली रात से याद आ रहा है
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दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
चले आओ जहाँ तक रौशनी मालूम होती है
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*हर गुनाह कबूल है हमे,*
*बस सजा देने वाला बेगुनाह* *हो..!!*
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