पृथ्वी पर तीन रत्न हैं - जल, अन्न और सुभाषित ।
लेकिन मूर्ख लोग पत्थर के टुकडों को ही रत्न कहते रहते हैं ।
इधर फ़लक को है ज़िद बिजलियाँ गिराने की
उधर हमें भी है धुन आशियाँ बनाने की
अजि यही तो दस्तूर है इस बेदर्द ज़माने का
हज़ार ग़म देकर ख़ुश रहने की फ़रमाइश करता है
ख़ामोशी तो छुपाती है ऐब और हुनर भी
सख्सियत का अन्दाजा तो गुफ्तगू से होता है।
मैं लौट आया था जिस दीवार पे दस्तक दे कर,
सुना है अब वहां दरवाज़ा निकल आया है...
शाखों से टूट जायें वह पत्ते नहीं हैं हम |
आंधी से कोई कह दे औकात में रहे ||
"वो मुझे छोड़ के इक शाम गए थे 'नासिर'
ज़िंदगी अपनी उसी शाम से आगे न बढ़ी!"
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