कष्ट और दुःख ❤
अमरीका के
एक महानगर में
एक होटल का मालिक
अपने मित्र से
रोज की शिकायतें कर रहा था
कि धंधा बहुत खराब है,
और धंधा रोज-रोज
नीचे गिरता जा रहा है;
होटल में अब
उतने मेहमान नहीं आते।
उसके मित्र ने कहा,
लेकिन तुम
क्या बातें कर रहे हो?
मैं तुम्हारे होटल पर
रोज ही नो वेकेंसी की
तख्ती लगी देखता हूं-
कि जगह खाली नहीं है।
उसने कहा,
वह तख्ती छोड़ो एक तरफ।
आज से चार महीने पहले
कम से कम सौ ग्राहकों को
रोज वापस लौटाता था,
अब मुश्किल से
पंद्रह-बीस को लौटा रहा हूं।
धंधा रोज गिर रहा है।
आदमी की व्याख्याएं हैं।
धंधा उतना ही है,
लेकिन ग्राहक कम लौट रहे हैं,
इससे भी पीड़ा है।
धंधे में रत्ती भर का
फर्क नहीं पड़ा है,
लेकिन वह आदमी दुखी है।
और उसके दुख में कोई
शक करने की जरूरत नहीं,
उसका दुख सच्चा है;
वह भोग रहा है दुख।
दुख हमारी व्याख्या है।
कष्ट बाहर से मिल सकता है।
इसलिए कष्ट से तो
बुद्ध भी पार नहीं हो सकते।
जब तक शरीर है,
तब तक कष्ट
दिया जा सकता है।
लेकिन दुख देने का
कोई उपाय नहीं।
क्योंकि कष्ट बाहर ही
रह जाएगा।
उसकी दुख की भांति
व्याख्या नहीं की जाएगी।
!! ओशो !!
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