Wednesday, 7 September 2016

चश्मे-ये-यार:

नयी सुबह पे नज़र है मगर आह! ये भी ड़र है,
ये सहर भी रफ़ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

एक आह भरी होगी, हमने ना सुनी होगी
जाते जाते तुमने, आवाज़ तो दी होगी

किसी क़दीम कहानी का इक चराग़ हूँ मैं
बुझा के छोड़ गई ताक़ पर हवा मुझ को

लोग कहते हैं..
समझो तो खामोशियाँ भी बोलती हैं..
मैं अरसे से ख़ामोश हूँ..
और वो बरसों से बेख़बर..

देखो तो चश्मे-ए-यार की जादुई निगाहें ,
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम !!

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