निकला हूँ घर से तनहा पर नाउमीद मैं नहीं
हूँ सफ़र में अकेला पर अकेला रहूँगा मैं नहीं।
तुम तक़ल्लुफ को भी इखलास समझते हो फ़राज़,
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला
ये किस ने आ के शहर का नक़्शा बदल दिया,
देखा है जिस किसी को वो बे-घर लगा मुझे...
वही है ज़िंदगी लेकिन ‘जिगर’ ये हाल है अपना,
कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है
माना कि तुम गुफ़्तगू के फन में माहिर हो फ़राज़,
वफ़ा के लफ्ज़ पे अटको तो हमें याद कर लेना
पहले खुशबु के मिज़ाजों को समझ लो !!
फिर गुलिस्तां मे किसी गुल से मोहबत करना !!
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