Saturday, 22 June 2019

मगरूर जितने पेड़ थे:

मग़रूर जितने पेड़ थे, हैरत में पड़ गए,
वो आंधियां चलीं के जड़ों से उखड़ गए.....

देर से निकलते हैं घर से,
जाना सबको जल्दी है।

नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही,
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

समेट लेते हैं खुद को हालात के मद्देनजर..!!
हाँ मेरे पैर अपनी चादर की हद जानते हैं....!!!!

जिंदगी में सुकून पाने की वजहें और भी थी,
जाने क्यों हर बार इश्क़ पर ही ऐतबार आया...

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