"जो कुछ भी इस विश्व को अघिक मानवीय और विवेकशील बनाता है उसे प्रगति कहते हैं; और केवल यही मापदंड हम इसके लिये अपना सकते हैं।"
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जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
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न जिस का नाम है कोई न जिस की शक्ल है कोई
इक ऐसी शय का क्यूँ हमें अज़ल से इंतिज़ार है
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वो लोग अपने आप में कितने अज़ीम थे
जो अपने दुश्मनों से भी नफ़रत न कर सके
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अपने गुनाहों पर सौ परदे डाल कर,
हर शख्स कहता है जमाना ख़राब है...
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दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है,
लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
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