मैं ज़ख़्म हूँ, जाकर गले लगूँ किस से,
नमक से तर कपड़े, यहाँ पहने हैं सभी ने...
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अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी
कितना मुश्किल है बड़े हो के बड़े रहना भी
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यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है,
हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है
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हम सोच रहें हैं मुद्दत से अब उम्र ग़ुज़ारें भी तो कहाँ,
सेहरा में खुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साये हैं
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वही मरने की तमन्ना वही जीने की हवस
न जफ़ाएँ तुम्हें आईं न वफ़ाएँ आईं
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ख़ामोशी बोल उठे हर नज़र पैग़ाम हो जाये,
ये सन्नाटा अगर हद से बढ़े कोहराम हो जाये
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रोना नसीब में है तो औरों से क्या गिला
अपने ही सर लिया कोई इल्ज़ाम रो पड़े
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Thursday, 2 February 2017
मैं ज़ख्म हूँ:
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