Tuesday, 16 February 2016

ईश्वर है उसका जो सर झुकाना सिख ले:

कशाकश है  उम्मीद-ओ-यास की  ये ज़िंदगी
क्या है,
इलाही ऐसी हस्ती से तो अच्छा था अदम मेरा!

रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़
कम से कम रात का नुक़सान बहुत करता है

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पे कि आसाँ हो गईं

होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है
रंज कम सहता है एलान बहुत करता है

चले तो पाँव के नीचे कुचल गई कोई शय
नशे की झोंक में देखा नहीं कि दुनिया है

उसकी महफिल में बैठ कर देखो,
जिंदगी कितनी खूबसूरत है

जी रहा हूं इस एतिमाद के साथ
जिंदगी को मेरी जरूरत है

उन मकानों में भी इंसान ही रहते होंगे
रौनक़ें जिन में नहीं आप की महफ़िल की सी

दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

हमने अपनी मुफलिसी का इस तरह रखा भरम,
राबते कम कर दिये,मग़रूर कहलाने लगे।

दौलत - ए- हुस्न पा के दुनिया में ..
कौन सा बुत है जो खुदा न हुआ .

एक रात वो गया था, जहाँ बात रोक के!
अब तक रुका हुआ हूँ, वहीं रात रोक के!!"

तजुर्बा किसी कंजूस के द्वारा इकठ्ठी की गई बचत की तरह होता है । बुद्धिमता विरासत में मिली दौलत है जो फिजूलखर्ची से भी खत्म नहीं होती ।

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई
जैसे कोई चीज़ चलते वक़्त घर में रह गई

चाँद तारे सभी हमसफ़र थे मगर………?

ज़िंदगी रात थी, रात ही काली रही

कहाँ से लाऊं वो हिम्मते
मासूमियत के दिन,
जिसे लोग कहा करते थे
बच्चा है जाने दो...

इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा

उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

मोहब्बत की तरह नफरत का भी एक दिन तय कर दे कोई,

ये रोज़-रोज़ की नफरतें अच्छी नहीं...

सारा जहाँ है उसका, जो मुस्कुराना सीख ले |
रोशनी है उसकी , जो शमा जलाना सीख ले ||

हर गली में है "मन्दिर" , हर राह में है "मस्जिद.."
"ईश्वर" है उसका, , जो सिर झुकाना सीख ले ||

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