Monday, 22 February 2016

धुआं अपना अक्स ढूंढ ही लेता है:

बन्सी:
अपने अश्क छुपा लो उन ऑखो मे कहीं
जिनमे मेरा अस्क कई बार दिखाई देता है

बन्सी:
बात बहुत मामूली सी थी उलझ गयी तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बर्बाद किया

बन्सी:
ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

बन्सी:
यारों की महफ़िल में क़त्ल के इंतज़ाम काफ़ी थे
फ़ना होने के लिए मगर बस दो जाम काफ़ी थे

बन्सी:
जिसे पूजा था हमने वो खुदा तो न बन सका, हम ईबादत करते करते फकीर हो गए...!

बन्सी:
हर बार जब् में वास्तविकता से मुंह मोड़ता हूँ, वो दूसरा रास्ता इख़्तियार करके सामने आ जाती है।

बन्सी:
एक दोशीज़ा सड़क पर धूप में है बे-क़रार
चूड़ियाँ बजती हैं कंकर कूटने में बार बार

बन्सी:
तू छोड़ गया तो ख़ता इसमें तेरी क्या है,
हर शख़्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता...

बन्सी:
मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर-ए-शब तक तो ले आया
तुम इस का ख़ूबसूरत सा कोई अंजाम लिख देना

बन्सी:
समुंदरों के सफ़र जिन के नाम लिक्खे थे
उतर गए वो किनारों पे कश्तियाँ ले कर

बन्सी:
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है

बन्सी:
गुफ्तगू करते रहिये ये इंसानी फितरत है,
बन्द मकान में जाले लग जाते हैं यही क़ुदरत है

बन्सी:
धुआँ  भी ढूँढ  ही लेता है अपना वजूद,
कभी ख़ुद  को खोकर कभी हवा का होकर...

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