Monday, 22 February 2016

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नही:

इस सादगी पै कौन न मर जाये ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।

आज की रात तुझे आखरी ख़त और लिख दूं,
कौन जाने यह दिया सुबह तक चले न चले

रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके...
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है

ये आरज़ू थी कि मिलें और ऐसी कुछ रातें |
तेरे सुकूत से कल रात बार रहीं बातें ||

थक गया हूँ चलते-चलते, अब रुक जाना चाहता हूँ...
तन गया था बढ़ते-बढ़ते, अब झुक जाना चाहता हूँ....

कभी सागर छलका दिया कभी एक बूँद को तरसा दिया.....
तेरे प्यार और तेरी बेरुख़ी ने हमें क्या क्या मंज़र दिखा दिया.....

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