सहरा को बहुत नाज़ है वीरानी पे अपनी
वाक़िफ़ नहीं शायद मेंरे उजड़े हुए घर से
दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
दरवाज़ा खोलने केलिए घर का घर उठा
उन्हें ठहरे समुंदर ने डुबोया
जिन्हें तूफ़ाँ का अंदाज़ा बहुत था
लोग मारने आये पत्थर तो वो भी साथ थे....
जिनके गुनाह की सजा हमारे सिर थी।
"हिम्मत ए रौशनी बढ़ जाती है, हम चिरागों की इन हवाओं से, कोई तो जा के बता दे उस को , दर्द बढता है अब दुआओं से"
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