Tuesday, 9 February 2016

कुछ तुम बदलो कुछ हम:

हुआ उजाला तो हम उन के नाम भूल गए
जो बुझ गए हैं चराग़ों के लौ बढ़ाते हुए

मैं उस के वास्ते सूरज तलाश करता हूँ
जो सो गया मेरी आँखों को रत-जगा दे कर

लाख आफ़ताब पास से होकर गुज़र गए
हम बैठे इंतज़ार-ए-सहर देखते रहे

न वो खिज़ा रही बाक़ी न वो बहार रही..
रही तो मेरी कहानी ही यादगार रही !!

हुई है तुझसे जो निस्बत उसी का सदका है,
वरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है।

इसलिए हम ने बुराई से भी नफ़रत नहीं की
क्यूँकि हम ढूँढ रहे थे कोई अच्छा इक दिन

अब न काबा की तमन्ना न किसी बुत की हवस
अब तो ज़िंदा हूँ किसी मरकज़-ए-इंसाँ के लिए

कुछ कहने पे तूफ़ान उठा लेती है दुनिया
अब उस पे क़यामत है कि हम कुछ नहीं कहते

तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला

सर जिस पे भी झुक जाए उसे दर नहीं कहते
हर दर पे जो झुक जाए उसे सर नहीं कहते

आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते बुझते एक ज़माना लगता है

घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
इक दिन अपना पीछा कर के देखा जाए

इक तअल्लुक़ था जिसे आग लगा दी उसने
अब मुझे देख रहा है वो धुआँ होते हुए

दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा 💞

नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अहद में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन

हमारे बाद अंधेरा रहेगा महफ़िल में
बहुत चराग़ जलाओगे रौशनी के लिए

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता,
मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो ll

कहाँ चिराग जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नही मिलता

बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई,
जैसे कोई चीज़ चलते वक़्त घर में रह गई

ये इश्क़ मोहब्बत की, रिवायत भी अजीब है....
पाया नहीं है जिसको, उसे खोना भी नहीं चाहते....

मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें

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