कबीरदास जी हरिभजन करते एक गली से निकल रहे थे.उनके आगे कुछ स्त्रियां जा रही थीं. उनमें से एक की शादी कहीं तय हुई होगी तो ससुरालवालों ने सगुन में एक नथनी भेजी थी.
वह लड़की अपनी सहेलियों को बार-बार नथनी के बारे में बता रही थी कि नथनी ऐसी है वैसी है, ये ख़ास उन्होंने मेरे लिए भेजी है, ये नथनी वो नथनी. बार बार बस नथनी की ही बात...
उनके पीछेे चल रहे कबीरजी के कान में बात पड़ रही थी. तेजी से डग भरते कबीर उनके पास से निकले और कहा-
"नथनी दिनी यार ने तो चिंतन बारम्बार,
और
नाक दिनी करतार ने प्यारे ...उनको दिया बिसार..."
सोचो यदि नाक ही ना होती तो नथनी कहा पहनती!
यही जीवन में हम भी करते हैं। भौतिक वस्तुओं का तो हमें ज्ञान रहता है परंतु सोचो परमात्मा ने देह न दी होती तो उन वस्तुओं की क्या उपयोगिता रहती! ईश्वर की अनुपम भेंट है दुर्लभ मनुष्य देह, इसके लिए सदा उनके आभारी रहिए।
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