कश्मीर
पथरों से भींची मुठ्ठीयां
अमन ओ चैन निगल गया
गोलियों के छर्रों से
कोई खवाब छिल गया
इधर से फिर ऊधर से
हर कोई मुझे छल गया
फिरकापरस्त तंग गलियों में
मासूम दुबक के निकल गया
मिटते नहीं दिलों से दाग़
ये कौन सी स्याही मल गया
हम बहसों में फिक्रमंद रहे
सामने शहर जल गया
ये दौर भी क्या खूब रहा
सही चुप था,शोर सब निगल गया
सन्नाटे पसरे रहे चौबारों में
अब के पूनम का चाँद ढल गया
नफरतों को लांघते लांघते
सदी सा वक़्त भी निकल गया
हम पता पूछते फिरते रहे
वो हमें पढ़ के निकल गया
इस कश्मीरी कैनवास पर
हर कोई सियासत मल गया
......trs.....
No comments:
Post a Comment