*एक बहुत बड़े दानवीर हुए* *रहीम । उनकी ये एक खास बात* *थी के जब वो दान देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते तो अपनी नज़रें नीचे झुका लेते थे।*
*ये बात सभी को* *अजीब लगती थी कि* *ये रहीम कैसे दानवीर है*
*ये दान भी देते है और* *इन्हें शर्म भी आती है ।ये बात जब कबीर*
*जी तक जब पहुंची तो* *उनोहने रहीम को चार* *पंक्तिया लिख कर भेजी* *जिसमे लिखा था* -
*ऐसी देनी देन जु*
*कित सीखे हो सेन*
*ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें*
*त्यों त्यों नीचे नैन ।*
*इसका मतलब था* *के रहीम तुम ऐसा दान* *देना कहाँ से सीखे हो* *जैसे जैसे तुम्हारे हाथ* *ऊपर उठते है वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें तुम्हारे नैन* *नीचे क्यू झुक जाते है* ।
*रहीम ने इसके बदले मे* *जो जवाब दिया वो जवाब इतना गजब का था कि जिसने भी सुना वो रहीम*
*का भक्त हो गया इतना* *प्यारा जवाब आज तक* *किसी ने किसी को नही* *दिया । रहीम ने जवाब*
*में लिखा*
*देंन हार कोई और है*
*भेजत जो दिन रैन*
*लोग भरम हम पर करें*
*तासो नीचे नैन ।।*
*मतलब देने वाला* *तो कोई और है वो मालिक* *है वो परमात्मा है वो दिन* *रात भेज रहा है । परन्तु* *लोग ये समझते है के मै* *दे रहा हु रहीम दे रहा है* *ये विचार कर मुझे शर्म* *आ जाती है और मेरी* *आँखे नीचे झुक जाती है* *सच में मित्रो ये ना* *समझी ये मेरे पन का* *भाव यदि इंसान के अंदर* *से मिट जाये तो वो* *जीवन को और बेहतर*
*जी सकता है* ।
No comments:
Post a Comment