Wednesday, 9 March 2016

अब मरने का शौक़ है, तो कातिल नहीं मिलते:

जान जब प्यारी थी, तब दुश्मन हज़ारों थे..
अब मरने का शौक है, तो क़ातिल नहीं मिलते...!!

हम खबर रखते हैं जमाने की, इन किस्सों से हमें बहलाओगे कैसे..?
कई राज़ दफ्न हैं इस सीने में, इन निगाहों से भला बच पाओगे कैसे ?

तिश्नालब हूँ तेरे दर पर एक प्यार का प्याला दे
मैंने कब ये चाहा मुझको तू पूरी मधुशाला दे
तन्हाई के सफ़र पे निकलूँ कैसे तन्हा घर से मैं
मेरे मौला मुझे भी कोई रुखसत करने वाला दे ......

ढलने लगी थी रात के तुम याद आ गए,
फिर उसके बाद रात बहुत देर तक रही.....!

सीले सीले से रिश्ते हैं...कमबख्त जलते ही नहीं...
बस इक धुआं सा उठता है चुभता है आँखों में......!!!

तुम्हारी प्रेरणा कई ज़गह तो
अंकित होती,
और कई ज़गह रहती अकथ।

यूँ तो बेटे की चाहत होती है ।
बिन बेटी ,कहाँ माँ को राहत होती है ।
बेटियों से ही बाप की बादशाहत होती है ।

खामोश मिजाजी तुम्हें जीने नहीं देगी
इस दौर में जीना है तो कोहराम मचा दो

ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
अभी दोहरा रही है ख़ुद हमारी दास्ताँ हम को

बे वक्त अगर जाउँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा

उन्हें उन सुनसान गलियों से ना गुज़रना पड़ा,
जिनमें हम आजकल तुम्हारी परछाईं ढूँढा करते है!

ये कहाँ मुमकिन है कि हर लफ़्ज़ बयाँ हो।
कुछ परदे हो दरमियाँ ये भी तो लाज़मी है।।

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आपको ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

चलो लहू भी चरागों की नज़र कर देंगे,
ये शर्त है कि वो फिर रौशनी ज़्यादा करें।

बेहतर दिनों की आस लगाते हुए
हम बेहतरीन दिन भी गँवाते चले गये

ज़िंदगी इक आँसुओं का जाम था...
पी गए कुछ और कुछ छलका गए!!!

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