जो बच्चे बचपन में तितली पकड़ने में जुटे रहते हैं
बड़े हो कर सोचते हैं चिड़िया पकड़ना भी उतना सरल है
फूल की चाह भी है तुमको, और दामन में काँटा भी मंज़ूर नही...!"
जो बीती है उसे दोहरने में कुछ वक़्त तो लगेगा,
इस ग़म को इक याद बनाने में कुछ वक़्त तो लगेगा
सच बोलने के तौर-तरीक़े नहीं रहे
पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे
देखो तो चश्मे-ए-यार की जादुई निगाहें ,
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम !!
मैं चिरागों की भला कैसे हिफाज़त करता?
वक़्त सूरज को भी हर रोज़ बुझा देता है...
चरागों कुछ तो बतलाओ! तुम्हें किस ने बुझा डाला !
तुम्हीं ने घर जलाए थे हवा की वाह वाही में ...!!
जब तलक शीशा रहा मैं बारहा तोड़ा गया,
बन गया पत्थर तो सब ने देवता माना मुझे
सच बोलने के तौर-तरीक़े नहीं रहे
पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे
मैं एक शाम तेरे साथ रह के लुट सा गया
कि ज़िंदगी में ये लहजा नहीं मिला मुझ को
सिर्फ दिया जालाने से घर रौशनी नहीं होगी,
हर शाम किसी भटके को रास्ता दिखाया करो।
लहर के सामने साहिल की हक़ीक़त क्या है
जिन को जीना है वो हालात से डरते कब हैं
प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा
ग़म किसी दिल में सही ग़म को मिटाना होगा
क्या दौर है कि इंसान इंसानियत को शर्मसार कर रहे हैं,
कलयुग ही है ये जहाँ गधे घोड़ों को बेरहमी से मार रहे हैं
अब किस से कहें और कौन सुने जो हाल तुम्हारे बाद हुआ
इस दिल की झील सी आँखों में इक ख़्वाब बहुत बर्बाद हुआ
नसीहते अच्छी देते हैं लोग....
अगर दर्द किसी ओर का हो....
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