मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या
अक्सर वही रिश्ते टूट जाते हैं....
जिसे सम्भालनें की अकेले
कोशिश की जाती है
वक़्त के शैलाब में, जाने क्या-क्या बह गया,
हमसफ़र दरिया बनाया, फिरभी प्यासा रह गया।
वक़्त के सैलाव में, जाने क्या-क्या बह गया,
हमसफ़र दरिया बनाया, फिरभी प्यासा रह गया।
छोटी छोटी बातों पर रिश्ते ना तोडा करो....
सुना है मर जाते हैँ पीने वाले भरी जवानी मेँ,
मैने तो बुजुर्गो को देखा है जवान होते मैखाने मे...
जिक्र तेरा करते थे, तो लोग बेहया कहते थे ।
जिक्र तेरा छोड़ दिया, तो लोग अब हमें बेवफ़ा कहते हैं!
बसते हैं कुछ अरमान इस दिल मे भी,
जो रह जाते हैं दिल मे ही तुम्हे देखकर
मुद्दत से किसी दर्द का तोहफ़ा नहीं आया
क्या हादिसे भी मेरा पता भूल गए हैं
भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
चरागों के बदले मकान जल रहे है
नया है ज़माना नई रौशनी है
मेरा ख़ुद से मिलने को जी चाहता है
बहुत अपने बारे में मैंने सुना है
हमें नींद की इज़ाज़त भी उनकी यादों से लेनी पड़ती है;
जो खुद आराम से सोये हैं हमें करवटों में छोड़ कर।
लूट लेते हैं अपने ही वरना
गैरों को क्या पता क़ि इस दिल की दीवार कमजोर कहाँ से है
ताबीज होते हैं कुछ शख्स ज़िंदगी में
जिनको गले लगाते ही सुकूँ मिलता है
सो जा ऐ दिल कि अब धुन्ध बहुत है
तेरे शहर में
अपने दिखते नहीं और जो दिखते है वो अपने नहीं
सफ़र में अचानक सभी रुक गए
अजब मोड़ अपनी कहानी में था
लोग हर मोड़ मे रुक रुक के संभलते क्यों हैं
इतना ड़रते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं
शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
मगर लहजों में वीरानी बहुत है
पूछा हाल शहर का तो,
सर झुका के बोले,
लोग तो जिंदा हैं,
जमीरों का पता नहीं ...
भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
मुझे तो क़तरा ही होना बहुत सताता है
इसी लिए तो समुंदर पे रहम आता है
देखा तो फिर वहीं थे चले थे जहाँ से हम
कश्ती के साथ साथ किनारे चले गए
खुद पर भरोसा करने का हुनर
सीख लो,
सहारे कितने भी सच्चे हो एक
दिन साथ छोड़ ही जाते हैं..
हर बार मुझसे नजरें चुरा लेता है वो
मैंने कागज़ पर भी बना कर देखी हैं आँखें उसकी
मोहब्बत के लिये अब
तेरी मौजूदगी ज़रूरी नहीं...
"यारा..... ज़र्रे-ज़र्रे में
तेरी रूह का अहसास होता है
हसरते पूरी ना हो..तो ना सही..!
पर..! ख़्वाब देखना, कोई गुनाह तो..नही.
क्रोध एक तेज़ाब है जो उस बर्तन का ज़्यादा अनिष्ट कर सकता है जिसमें वह भरा होता है न क़ि उसका जिस पे वह डाला जाता है।
’इश्क़’, ’दीवानगी’ तो पुराने हुये
अब जुनूँ को मेरे और कुछ नाम दे
शाम हुई तो जल उठे रात ढली तो बुझ गए
हम भी यूँही फ़ना हुए हम को भी राएगाँ कहो
दुःख नही की मुझे देख कर वो दरवाज़ा बंद कर लेते हैं।
खुशी है की वो मुझे आज भी पहचान लेते हैं ।
दर्द के दरिया को भी आराम देना चाहता हूँ
आसुओं को खूबसूरत नाम देना चाहता हूँ ।
कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था..
पसंद उस ने भी रंगों में रंग सादा किया...!
दुआ-ए-तौबा भी हम ने पढ़ी तो मय पी कर
मज़ा ही हम को किसी शय का बे-शराब न था
हमने उतार दिये है तेरी मोहब्बत के सभी क़र्ज,
अब हिसाब तेरे दिये हुये जख्मो का होगा !
तूम्हारी बज़्म से निकले तो हमने ये सोचा
ज़मिन से चाँद तक कितना फ़ासला होगा
उस हाल में जीना लाजिम है
जिस हाल में जीना मुश्किल है.
खुदा जाने कौन सा गुनाह कर बैठे हैं हम....
की तमन्नाओं वाली उम्र में, तजुर्बे मिल रहे हैं...
बहोत अंदर तक जला देती है...
वो शिकायतें जो बयाँ नही होती!
उम्र ज़ाया कर दी औरों के नुक़्स निकालते निकालते,
इतना खुद को तराशते तो खुदा हो जाते...
बरसों सजाते रहे हम किरदार को मगर,
कुछ लोग बाज़ी ले गए सूरत सँवार कर
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