कोई लश्कर है कि बढ़ते हुए ग़म आते हैं
शाम के साए बहुत तेज़ क़दम आते हैं
एक पल "में वहाँ से हम उठे,
बैठने में जहाँ "ज़माने" लगे
जिस को ख़ुश रहने के सामान मयस्सर सब हों
उस को ख़ुश रहना भी आए ये ज़रूरी तो नहीं.
हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए
रिश्तों का ए'तिबार वफ़ाओं का इंतिज़ार
हम भी चराग़ ले के हवाओं में आए हैं
हम लफ्ज सोच सोच के थक से गये ;
और आपने फुल देके इज़हार कर दिया ...
मेरे हिस्से की जमीं बंजर थी मै वाकीफ न था,
बेसबब इल्जाम मै देता रहा बरसात को मैं...
"हमने उल्फ़त के नशे में आकर उसे खुदा बना डाला
होश तब आया जब उसने कहा कि खुदा किसी एक का नहीं होता।"
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