Sunday, 13 March 2016

असलियत तो वृक्ष ही है:

चरित्र एक वृक्ष है और मान एक छाया । हम हमेशा छाया की सोचते हैं; लेकिन असलियत तो वृक्ष ही है।

जंगल को भी हिला गया आंधियों का काफिला
कैसे तुम अपनी आहें सीने में छुपाया करते हो

ये राहबर हैं तो क्यों फासले से मिलते हैं
रुख पे इनके नुमायाँ नकाब सा क्यों है

है देखने वालों को संभलने का इशारा,
थोड़ी-सी नकाब वह सरकाये हुए हैं।

वो हम से ख़फ़ा हैं हम उन से ख़फ़ा हैं
मगर बात करने को जी चाहता है

मुझे एक पेड़ काटने के लिए यदि आप छः घंटे देते हैं तो मै चार घन्टे अपनी कुल्हाड़ी की धार बनाने में लगाउँगा।

"शब्द" चाहे जितने हो मेरे पास...
जो तुम तक न पहुचे सब "व्यर्थ" है...

ना अनपढ़ रहा, ना काबिल हुआ..
खाम-खां ए जिंदगी, तेरे स्कूल में दाखिल हुआ..

मुद्दतें हो गयी हैं चुप रहते,
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते

मुझको पढ़ना हो तो मेरी शायरी पढ़ लो,
लफ्ज बेमिसाल न सही, जज्बात लाजवाब होंगे

शुक्र करो कि दर्द सहते हैं ज़्यादा लिखते नहीं,
वर्ना कागजों पे लफ्जों के जनाजे उठते हर रात

चुप रहना ही बेहतर है, जमाने के हिसाब से..
धोखा खा जाते है, अक्सर ज्यादा बोलने वाले !!

"आरजू" होनी चाहिए किसी को याद करने की ।
"लम्हे" तो अपने आप मिल जाते है।।

हमने सोचा के दो चार दिन की बात होगी लेकिन .
तेरे ग़म से तो उम्र भर का रिश्ता निकल आया .

किसी ख़ंज़र किसी तलवार को तक़्लीफ़ न दो,
मरने वाला तो फ़क़त बात से मर जाएगा.....

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