उससे दरियाफ़्त न करना कभी दिन के हालात
सुबह का भूला जो लौट आया हो घर शाम के बाद
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाए
मोतियों को तो बिखर जाने की आदत है लेकिन,
धागे की ज़िद होती है पिरोए रखने की
कहा था तुम से कि ये रास्ता भी ठीक नहीं..
कभी तो क़ाफ़िले वालों की बात रख लेते..
न बे हिजाब वो चाँद सा, कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं
ये फ़क़त लफ्ज़ हैं तो रोक दे रस्ता इन का ....
और अगर सच है तो फिर बात मुकम्मल कर दे....
ग़ुरूर बढ़ने लगा था इंसान का
धूप ने फ़ौरन साया छोटा कर दिया
जहर पीने की तो आदत थी जमाने वालों
अब कोई और दवा दो कि मैं जिंदा हूँ अभी
आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ए'तिबार किया
बुद्धिमता पारितोषिक है आप के जीवनपर्यन्त श्रोता बने रहने का, उन सब क्षणों में भी जब आप बोलना चाहते थे।
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