Thursday, 31 March 2016

मुर्गा हलाल:


एक कसाई था,पिंजरेनुमा जाली मे कई मुर्गो को भरकर रखता ओर जैसे जैसे कोई ग्राहक आता एक एक मुर्गा निकालकर हलाल करता जाता......!!! मजे की बात देखियें की जब भी वो मुर्गा हलाल करने के लिये पींजरे मे हाथ डालता तो केवल वही मुर्गा चिल्लाता था जिसे कसाई ने पकडा था,और बाकि के मुर्गे आराम से दाना चुगने मे व्यस्त रहतें । शाम तक पूरा पिंजरा खाली हो चुका था खैर हम समझा किसे रहे है ?
हम अपने में ही मस्त रहते हैं।

Wednesday, 30 March 2016

हम इंतज़ार में हैं क़यामत के:

शाम होती है तो लगता है कोई रूठ गया
और शब उस को मनाने में गुज़र जाती है

आँखों ने हाल कह दिया होंट न फिर हिला सके
दिल में हज़ार ज़ख़्म थे जो न उन्हें दिखा सके

हम इन्तज़ार में हैं क़यामत के
सुना है वो तेरे आने पे होगी।

कितने ख़ुशनुमा थे ख्याल मेरे ज़िंदगी के बारे में
एक तुम क्या मिले ज़िंदगी ही बदल गई सारी

उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए

क़फ़स में मौसमों का कोई अंदाज़ा नहीं होता
ख़ुदा जाने बहार आई चमन में या ख़िज़ाँ आई

Monday, 28 March 2016

बहुत संभारते रहे किरदार अपना:

मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या

अक्सर वही रिश्ते टूट जाते हैं....
जिसे सम्भालनें की अकेले
कोशिश की जाती है

वक़्त के शैलाब में, जाने क्या-क्या बह गया,
हमसफ़र दरिया बनाया, फिरभी प्यासा रह गया।

वक़्त के सैलाव में, जाने क्या-क्या बह गया,
हमसफ़र दरिया बनाया, फिरभी प्यासा रह गया।

छोटी छोटी बातों पर रिश्ते ना तोडा करो....

सुना है मर जाते हैँ पीने वाले भरी जवानी मेँ,
मैने तो बुजुर्गो को देखा है जवान होते मैखाने मे...

जिक्र तेरा करते थे, तो लोग बेहया कहते थे ।
जिक्र तेरा छोड़ दिया, तो लोग अब हमें बेवफ़ा कहते हैं!

बसते हैं कुछ अरमान इस दिल मे भी,
जो रह जाते हैं दिल मे ही तुम्हे देखकर

मुद्दत से किसी दर्द का तोहफ़ा नहीं आया
क्या हादिसे भी मेरा पता भूल गए हैं

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए

चरागों के बदले मकान जल रहे है
नया है ज़माना नई रौशनी है

मेरा ख़ुद से मिलने को जी चाहता है
बहुत अपने बारे में मैंने सुना है

हमें नींद की इज़ाज़त भी उनकी यादों से लेनी पड़ती है;
जो खुद आराम से सोये हैं हमें करवटों में छोड़ कर।

लूट लेते हैं अपने ही वरना
गैरों को क्या पता क़ि इस दिल की दीवार कमजोर कहाँ से है

ताबीज होते हैं कुछ शख्स ज़िंदगी में
जिनको गले लगाते ही सुकूँ मिलता है

सो जा ऐ दिल कि अब धुन्ध बहुत है
तेरे शहर में
अपने दिखते नहीं और जो दिखते है वो अपने नहीं

सफ़र में अचानक सभी रुक गए
अजब मोड़ अपनी कहानी में था

लोग हर मोड़ मे रुक रुक के संभलते क्यों हैं
इतना ड़रते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
मगर लहजों में वीरानी बहुत है

पूछा हाल शहर का तो,
सर झुका के बोले,
लोग तो जिंदा हैं,
जमीरों का पता नहीं ...

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए

मुझे तो क़तरा ही होना बहुत सताता है
इसी लिए तो समुंदर पे रहम आता है

देखा तो फिर वहीं थे चले थे जहाँ से हम
कश्ती के साथ साथ किनारे चले गए

खुद पर भरोसा करने का हुनर
सीख लो,
सहारे कितने भी सच्चे हो एक
दिन साथ छोड़ ही जाते हैं..

हर बार मुझसे नजरें चुरा लेता है वो
मैंने कागज़ पर भी बना कर देखी हैं आँखें उसकी

मोहब्बत के लिये अब
तेरी मौजूदगी ज़रूरी नहीं...
"यारा..... ज़र्रे-ज़र्रे में
तेरी रूह का अहसास होता है

हसरते पूरी ना हो..तो ना सही..!
पर..! ख़्वाब देखना, कोई गुनाह तो..नही.

क्रोध एक तेज़ाब है जो उस बर्तन का ज़्यादा अनिष्ट कर सकता है जिसमें वह भरा होता है न क़ि उसका जिस पे वह डाला जाता है।

’इश्क़’, ’दीवानगी’ तो पुराने हुये
अब जुनूँ को मेरे और कुछ नाम दे

शाम हुई तो जल उठे रात ढली तो बुझ गए
हम भी यूँही फ़ना हुए हम को भी राएगाँ कहो

दुःख नही की मुझे देख कर वो दरवाज़ा बंद कर लेते हैं।
खुशी है की वो मुझे आज भी पहचान लेते हैं ।

दर्द के दरिया को भी आराम देना चाहता हूँ
आसुओं को खूबसूरत नाम देना चाहता हूँ ।

कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था..
पसंद उस ने भी रंगों में रंग सादा किया...!

दुआ-ए-तौबा भी हम ने पढ़ी तो मय पी कर
मज़ा ही हम को किसी शय का बे-शराब न था

हमने उतार दिये है तेरी मोहब्बत के सभी क़र्ज,
अब हिसाब तेरे दिये हुये जख्मो का होगा !

तूम्हारी बज़्म से निकले तो हमने ये सोचा
ज़मिन से चाँद तक कितना फ़ासला होगा

उस हाल में जीना लाजिम है
जिस हाल में जीना मुश्किल है.

खुदा जाने कौन सा गुनाह कर बैठे हैं हम....
की तमन्नाओं वाली उम्र में, तजुर्बे मिल रहे हैं...

बहोत अंदर तक जला देती है...
वो शिकायतें जो बयाँ नही होती!

उम्र ज़ाया कर दी औरों के नुक़्स निकालते निकालते,
इतना खुद को तराशते तो खुदा हो जाते...

बरसों सजाते रहे हम किरदार को मगर,
कुछ लोग बाज़ी ले गए सूरत सँवार कर

Wednesday, 16 March 2016

अगर दर्द किसी और का हो:

जो बच्चे बचपन में तितली पकड़ने में जुटे रहते हैं
बड़े हो कर सोचते हैं चिड़िया पकड़ना भी उतना सरल है

फूल की चाह भी है तुमको, और दामन में काँटा भी मंज़ूर नही...!"

जो बीती है उसे दोहरने में कुछ वक़्त तो लगेगा,
इस ग़म को इक याद बनाने में कुछ वक़्त तो लगेगा

सच बोलने के तौर-तरीक़े नहीं रहे
पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे

देखो तो चश्मे-ए-यार की जादुई निगाहें ,
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम !!

मैं चिरागों की भला कैसे हिफाज़त करता?
वक़्त सूरज को भी हर रोज़ बुझा देता है...

चरागों कुछ तो बतलाओ! तुम्हें किस ने बुझा डाला !
तुम्हीं ने घर जलाए थे हवा की वाह वाही में ...!!

जब तलक शीशा रहा मैं बारहा तोड़ा गया,
बन गया पत्थर तो सब ने देवता माना मुझे

सच बोलने के तौर-तरीक़े नहीं रहे
पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे

मैं एक शाम तेरे साथ रह के लुट सा गया
कि ज़िंदगी में ये लहजा नहीं मिला मुझ को

सिर्फ दिया जालाने से घर रौशनी नहीं होगी,
हर शाम किसी भटके को रास्ता दिखाया करो।

लहर के सामने साहिल की हक़ीक़त क्या है
जिन को जीना है वो हालात से डरते कब हैं

प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा
ग़म किसी दिल में सही ग़म को मिटाना होगा

क्या दौर है कि इंसान इंसानियत को शर्मसार कर रहे हैं,
कलयुग ही है ये जहाँ गधे घोड़ों को बेरहमी से मार रहे हैं

अब किस से कहें और कौन सुने जो हाल तुम्हारे बाद हुआ
इस दिल की झील सी आँखों में इक ख़्वाब बहुत बर्बाद हुआ

नसीहते अच्छी देते हैं लोग....
अगर दर्द किसी ओर का हो....

Tuesday, 15 March 2016

तुम मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो!

मैंने सुना है, महाराष्ट्र की एक प्राचीन कथा है। रांका और बांका पति—पत्नी थे। रांका पति था, बांका उसकी पत्नी का नाम था। थी भी वह बांकी औरत। रांका बड़ा त्यागी था। उसने सब छोड़ दिया था। वह भीख भी नहीं मांगता था। वह रोज जा कर जंगल से लकड़ी काट लाता और बेच देता, जो बचता, उससे भोजन कर लेता। सांझ अगर कुछ बच जाता, तो उसको बांट देता। रात फिर भिखमंगे हो कर सो जाते। सुबह फिर लकड़ी काटने चला जाता।
एक दिन ऐसा हुआ कि वह बीमार था और तीन दिन तक लकड़ी काटने न जा सका। तो तीन दिन घर में चूल्हा न जला। चौथे दिन कमजोर तो था, लेकिन जाना पड़ा। पत्नी भी साथ गई सहारा देने को। लकड़ियां काटीं। रांका अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठा लिये चलने लगा। पीछे—पीछे उसकी पत्नी चलने लगी। राह के किनारे अभी—अभी कोई घुड़सवार निकला है, घोड़े के पदचाप बने हैं, और धूल अभी तक उड़ रही है। और देखा उन्होंने कि किनारे एक अशर्फियों से भरी थैली पड़ी है, शायद घुड़सवार की गिर गई है। रांका आगे है। उसके मन में सोच उठा कि मैं तो हूं त्यागी, मैंने तो विजय पा ली, मेरे लिये तो धन मिट्टी है; मगर पत्नी तो पत्नी है, कहीं उसका मन न आ जाये, लोभ न आ जाये; कहीं सोचने न लगे रख लो, कभी दुर्दिन में काम आ जायेगी, अब तीन दिन भूखे रहना पड़ा, एक पैसा पास न था। ऐसा सोच कर उसने जल्दी से अशर्फियों से भरी थैली पास के एक गड्डे में सरका कर उसके ऊपर मिट्टी डाल दी। वह मिट्टी डाल कर चुक ही रहा था कि पत्नी आ गई। उसने पूछा, क्या करते हो?
तो रांका ने कसम खाई थी झूठ कभी न बोलने की, बड़ी मुश्किल में पड़ गया। कहे, तो डर लगा कि यह पत्नी झंझट न करने लगे; और कहे कि रख लो, हर्ज क्या है, भाग्य ने दी है, भगवान ने दी है, रख लो—कहीं ऐसा न कहने लगे! स्त्री का भरोसा क्या! साधु—संन्यासी स्त्री से सदा डरे रहे। मगर झूठ भी न बोल सका, क्योंकि कसम खा ली थी। तो उसने मजबूरी में कहा कि सुन, मुझे क्षमा कर, और कोई और बात मत उठाना, सत्य कहे देता हूं: यहां थैली पड़ी थी, यह सोच कर कि तेरा लोभ न जग जाये, मैं तो खैर लोभ का त्याग कर चुका, मगर तेरा क्या भरोसा! स्त्री यानी स्त्री। स्त्री का कहीं मोक्ष होता है! जब तक वह पुरुष न हो जाये, तब तक मोक्ष नहीं कहते धर्मशास्त्र—सब धर्मशास्त्र पुरुषों ने लिखे हैं; वहा भी बड़ी राजनीति है—तो तू स्त्री है, कमजोर हृदय की है, रागात्मक तेरी प्रवृत्ति है। तू कहीं उलझ न जाये, इसलिए तेरे को ध्यान में रख कर मैंने ये अशर्फियां मिट्टी में ढक दी हैं और ऊपर से मिट्टी डाल रहा हूं।
रांका की बात सुन कर बांका खूब हंसने लगी। उसे नाम इसीलिए तो बांका मिला। वह कहने लगी, यह भी खूब रही! मिट्टी पर मिट्टी डालते तुम्हें शर्म नहीं आती? और जरूर तुम्हारे भीतर कहीं लोभ बाकी है। जो तुम मुझ में सोचते हो, वह तुम्हारे भीतर कहीं छिपा होगा। जो तुम मुझ पर आरोपित करते हो, वह कहीं तुम्हारे भीतर दबा पड़ा होगा। तुम्हें अभी सोना, सोना दिखाई पड़ता है? तुम्हें अभी भी सोने और मिट्टी में फर्क मालूम होता है?
वह तो रोने लगी, वह तो कहने लगी कि मैं तो सोचती थी कि तुम त्यागी हो गये! यह क्या हुआ, अभी तक धोखा ही चला! तुम मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो!

Monday, 14 March 2016

The missing goat:

It all started one lazy Sunday afternoon in a small town near Toronto in Canada.

Two school-going friends had a crazy idea.

They rounded up three goats from the neighborhood and painted the number 1, 2 and 4 on their sides.

That night they let the goats loose inside their school building.

The next morning, when the authorities entered the school, they could smell something was wrong.

They soon saw goat droppings on the stairs and near the entrance and realized that some goats had entered the building.

A search was immediately launched and very soon, the three goats were found.

But the authorities were worried, where was goat No. 3?

They spent the rest of the day looking for goat No.3.

Gradually there was panic and frustration.

The school declared classes off for the students for the rest of the day.

The teachers, helpers, guards, canteen staffs, boys were all busy looking for the goat No. 3, which, of course, was never found.

Simply because it did not exist.
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Those among us who inspite of having a good life are always feeling a "lack of fulfilment" are actually looking for the elusive, missing, non-existent goat No.3.

Whatever the area of complaint or search or dissatisfaction may be - relationship, job-satisfaction, materialistic achievement......
An absence of something is always larger than  the presence of many other things.

Stop worrying about goat No.3

पति पत्नी की अहमियत:

शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर पति-पत्नी साथ में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। संसार की दृष्टि में वो एक आदर्श युगल था। प्रेम भी बहुत था दोनों में लेकिन कुछ समय से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है। शिकायतें धीरे-धीरे बढ़ रही थीं। बातें करते-करते अचानक पत्नी ने एक प्रस्ताव रखा कि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना होता है लेकिन हमारे पास समय ही नहीं होता एक-दूसरे के लिए। इसलिए मैं दो डायरियाँ ले आती हूँ और हमारी जो भी शिकायत हो हम पूरा साल अपनी-अपनी डायरी में लिखेंगे। अगले साल इसी दिन हम एक-दूसरे की डायरी पढ़ेंगे ताकि हमें पता चल सके कि हममें कौन सी कमियां हैं जिससे कि उसका पुनरावर्तन ना हो सके। पति भी सहमत हो गया कि विचार तो अच्छा है। डायरियाँ आ गईं और देखते ही देखते साल बीत गया। अगले साल फिर विवाह की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर दोनों साथ बैठे। एक-दूसरे की डायरियाँ लीं। पहले आप, पहले आप की मनुहार हुई। आखिर में महिला प्रथम की परिपाटी के आधार पर पत्नी की लिखी डायरी पति ने पढ़नी शुरू की।

पहला पन्ना...... दूसरा पन्ना........ तीसरा पन्ना

..... आज शादी की वर्षगांठ पर मुझे ढंग का तोहफा नहीं दिया।
.......आज होटल में खाना खिलाने का वादा करके भी नहीं ले गए।
.......आज मेरे फेवरेट हीरो की पिक्चर दिखाने के लिए कहा तो जवाब मिला बहुत थक गया हूँ
........ आज मेरे मायके वाले आए तो उनसे ढंग से बात नहीं की
.......... आज बरसों बाद मेरे लिए साड़ी लाए भी तो पुराने डिजाइन की
ऐसी अनेक रोज़ की छोटी-छोटी फरियादें लिखी हुई थीं। पढ़कर पति की आँखों में आँसू आ गए। पूरा पढ़कर पति ने कहा कि मुझे पता ही नहीं था मेरी गल्तियों का। मैं ध्यान रखूँगा कि आगे से इनकी पुनरावृत्ति ना हो।
अब पत्नी ने पति की डायरी खोली
पहला पन्ना……… कोरा
दूसरा पन्ना……… कोरा
तीसरा पन्ना ……… कोरा
अब दो-चार पन्ने साथ में पलटे वो भी कोरे
फिर 50-100 पन्ने साथ में पलटे तो वो भी कोरे
पत्नी ने कहा कि मुझे पता था कि तुम मेरी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकोगे। मैंने पूरा साल इतनी मेहनत से तुम्हारी सारी कमियां लिखीं ताकि तुम उन्हें सुधार सको। और तुमसे इतना भी नहीं हुआ। पति मुस्कुराया और कहा मैंने सब कुछ अंतिम पृष्ठ पर लिख दिया है। पत्नी ने उत्सुकता से अंतिम पृष्ठ खोला। उसमें लिखा था
मैं तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी जितनी भी शिकायत कर लूँ लेकिन तुमने जो मेरे और मेरे परिवार के लिए त्याग किए हैं और इतने वर्षों में जो असीमित प्रेम दिया है उसके सामने मैं इस डायरी में लिख सकूँ ऐसी कोई कमी मुझे तुममें दिखाई ही नहीं दी। ऐसा नहीं है कि तुममें कोई कमी नहीं है लेकिन तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा समर्पण, तुम्हारा त्याग उन सब कमियों से ऊपर है। मेरी अनगिनत अक्षम्य भूलों के बाद भी तुमने जीवन के प्रत्येक चरण में छाया बनकर मेरा साथ निभाया है। अब अपनी ही छाया में कोई दोष कैसे दिखाई दे मुझे।
अब रोने की बारी पत्नी की थी। उसने पति के हाथ से अपनी डायरी लेकर दोनों डायरियाँ अग्नि में स्वाहा कर दीं और साथ में सारे गिले-शिकवे भी। फिर से उनका जीवन एक नवपरिणीत युगल की भाँति प्रेम से महक उठा।

दोस्तो, ये एक काल्पनिक कहानी है। पति की जगह पत्नी भी हो सकती है और पत्नी की जगह पति भी। सीखना केवल ये है कि जब जवानी का सूर्य अस्ताचल की ओर प्रयाण शुरू कर दे तब हम एक-दूसरे की कमियां या गल्तियां ढूँढने की बजाए अगर ये याद करें हमारे साथी ने हमारे लिए कितना त्याग किया है, उसने हमें कितना प्रेम दिया है, कैसे पग-पग पर हमारा साथ दिया है तो निश्चित ही जीवन में प्रेम फिर से पल्लवित हो जाएगा।

बस थोड़ा सा सोचने की देर है

Sunday, 13 March 2016

असलियत तो वृक्ष ही है:

चरित्र एक वृक्ष है और मान एक छाया । हम हमेशा छाया की सोचते हैं; लेकिन असलियत तो वृक्ष ही है।

जंगल को भी हिला गया आंधियों का काफिला
कैसे तुम अपनी आहें सीने में छुपाया करते हो

ये राहबर हैं तो क्यों फासले से मिलते हैं
रुख पे इनके नुमायाँ नकाब सा क्यों है

है देखने वालों को संभलने का इशारा,
थोड़ी-सी नकाब वह सरकाये हुए हैं।

वो हम से ख़फ़ा हैं हम उन से ख़फ़ा हैं
मगर बात करने को जी चाहता है

मुझे एक पेड़ काटने के लिए यदि आप छः घंटे देते हैं तो मै चार घन्टे अपनी कुल्हाड़ी की धार बनाने में लगाउँगा।

"शब्द" चाहे जितने हो मेरे पास...
जो तुम तक न पहुचे सब "व्यर्थ" है...

ना अनपढ़ रहा, ना काबिल हुआ..
खाम-खां ए जिंदगी, तेरे स्कूल में दाखिल हुआ..

मुद्दतें हो गयी हैं चुप रहते,
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते

मुझको पढ़ना हो तो मेरी शायरी पढ़ लो,
लफ्ज बेमिसाल न सही, जज्बात लाजवाब होंगे

शुक्र करो कि दर्द सहते हैं ज़्यादा लिखते नहीं,
वर्ना कागजों पे लफ्जों के जनाजे उठते हर रात

चुप रहना ही बेहतर है, जमाने के हिसाब से..
धोखा खा जाते है, अक्सर ज्यादा बोलने वाले !!

"आरजू" होनी चाहिए किसी को याद करने की ।
"लम्हे" तो अपने आप मिल जाते है।।

हमने सोचा के दो चार दिन की बात होगी लेकिन .
तेरे ग़म से तो उम्र भर का रिश्ता निकल आया .

किसी ख़ंज़र किसी तलवार को तक़्लीफ़ न दो,
मरने वाला तो फ़क़त बात से मर जाएगा.....

Thursday, 10 March 2016

बुद्धिमता पारितोषिक है आप के जीवनपर्यन्त श्रोता बने रहने का, उन सब क्षणों में भी जब आप बोलना चाहते थे।

उससे दरियाफ़्त न करना कभी दिन के हालात
सुबह का भूला जो लौट आया हो घर शाम के बाद

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाए

मोतियों को तो बिखर जाने की आदत है लेकिन,
धागे की ज़िद होती है पिरोए रखने की

कहा था तुम से कि ये रास्ता भी ठीक नहीं..
कभी तो क़ाफ़िले वालों की बात रख लेते..

न बे हिजाब वो चाँद सा, कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं

ये फ़क़त लफ्ज़ हैं तो रोक दे रस्ता इन का  ....
और अगर सच है तो फिर बात मुकम्मल कर दे....

ग़ुरूर  बढ़ने  लगा  था  इंसान  का
धूप ने फ़ौरन साया छोटा कर दिया

जहर पीने की तो आदत थी जमाने वालों
अब कोई और दवा दो कि मैं जिंदा हूँ अभी

आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ए'तिबार किया

बुद्धिमता पारितोषिक है आप के जीवनपर्यन्त श्रोता बने रहने का, उन सब क्षणों में भी जब आप बोलना चाहते थे।

जो चल सको तो चलो:

Wednesday, 9 March 2016

अब मरने का शौक़ है, तो कातिल नहीं मिलते:

जान जब प्यारी थी, तब दुश्मन हज़ारों थे..
अब मरने का शौक है, तो क़ातिल नहीं मिलते...!!

हम खबर रखते हैं जमाने की, इन किस्सों से हमें बहलाओगे कैसे..?
कई राज़ दफ्न हैं इस सीने में, इन निगाहों से भला बच पाओगे कैसे ?

तिश्नालब हूँ तेरे दर पर एक प्यार का प्याला दे
मैंने कब ये चाहा मुझको तू पूरी मधुशाला दे
तन्हाई के सफ़र पे निकलूँ कैसे तन्हा घर से मैं
मेरे मौला मुझे भी कोई रुखसत करने वाला दे ......

ढलने लगी थी रात के तुम याद आ गए,
फिर उसके बाद रात बहुत देर तक रही.....!

सीले सीले से रिश्ते हैं...कमबख्त जलते ही नहीं...
बस इक धुआं सा उठता है चुभता है आँखों में......!!!

तुम्हारी प्रेरणा कई ज़गह तो
अंकित होती,
और कई ज़गह रहती अकथ।

यूँ तो बेटे की चाहत होती है ।
बिन बेटी ,कहाँ माँ को राहत होती है ।
बेटियों से ही बाप की बादशाहत होती है ।

खामोश मिजाजी तुम्हें जीने नहीं देगी
इस दौर में जीना है तो कोहराम मचा दो

ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
अभी दोहरा रही है ख़ुद हमारी दास्ताँ हम को

बे वक्त अगर जाउँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा

उन्हें उन सुनसान गलियों से ना गुज़रना पड़ा,
जिनमें हम आजकल तुम्हारी परछाईं ढूँढा करते है!

ये कहाँ मुमकिन है कि हर लफ़्ज़ बयाँ हो।
कुछ परदे हो दरमियाँ ये भी तो लाज़मी है।।

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आपको ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

चलो लहू भी चरागों की नज़र कर देंगे,
ये शर्त है कि वो फिर रौशनी ज़्यादा करें।

बेहतर दिनों की आस लगाते हुए
हम बेहतरीन दिन भी गँवाते चले गये

ज़िंदगी इक आँसुओं का जाम था...
पी गए कुछ और कुछ छलका गए!!!

Friday, 4 March 2016

हमेशा अच्छा करो:

एक औरत अपने परिवार के सदस्यों के लिए रोज़ाना भोजन पकाती थी और एक रोटी वह वहाँ से गुजरने वाले किसी भी भूखे के लिए पकाती थी..।

वह उस रोटी को खिड़की के सहारे रख दिया करती थी, जिसे कोई भी ले सकता था..।

एक कुबड़ा व्यक्ति रोज़ उस रोटी को ले जाता और बजाय धन्यवाद देने के अपने रस्ते पर चलता हुआ वह कुछ इस तरह बड़बड़ाता- "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा..।"

दिन गुजरते गए और ये सिलसिला चलता रहा..

वो कुबड़ा रोज रोटी लेके जाता रहा और इन्ही शब्दों को बड़बड़ाता- "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा.।"

वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन खुद से कहने लगी की- "कितना अजीब व्यक्ति है, एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है, और न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहता है, मतलब क्या है इसका.।"

एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और बोली- "मैं इस कुबड़े से निजात पाकर रहूंगी.।"

और उसने क्या किया कि उसने उस रोटी में ज़हर मिला दिया जो वो रोज़ उसके लिए बनाती थी, और जैसे ही उसने रोटी को को खिड़की पर रखने कि कोशिश की, कि अचानक उसके हाथ कांपने लगे और रुक गये और वह बोली- "हे भगवन, मैं ये क्या करने जा रही थी.?" और उसने तुरंत उस रोटी को चूल्हे कि आँच में जला दिया..। एक ताज़ा रोटी बनायीं और खिड़की के सहारे रख दी..।

हर रोज़ कि तरह वह कुबड़ा आया और रोटी ले के: "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा, और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा" बड़बड़ाता हुआ चला गया..।

इस बात से बिलकुल बेख़बर कि उस महिला के दिमाग में क्या चल रहा है..।

हर रोज़ जब वह महिला खिड़की पर रोटी रखती थी तो वह भगवान से अपने पुत्र कि सलामती और अच्छी सेहत और घर वापसी के लिए प्रार्थना करती थी, जो कि अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए कहीं बाहर गया हुआ था..। महीनों से उसकी कोई ख़बर नहीं थी..।

ठीक उसी शाम को उसके दरवाज़े पर एक दस्तक होती है.. वह दरवाजा खोलती है और भोंचक्की रह जाती है.. अपने बेटे को अपने सामने खड़ा देखती है..।

वह पतला और दुबला हो गया था.. उसके कपडे फटे हुए थे और वह भूखा भी था, भूख से वह कमज़ोर हो गया था..।

जैसे ही उसने अपनी माँ को देखा, उसने कहा- "माँ, यह एक चमत्कार है कि मैं यहाँ हूँ.. आज जब मैं घर से एक मील दूर था, मैं इतना भूखा था कि मैं गिर गया.. मैं मर गया होता..।

लेकिन तभी एक कुबड़ा वहां से गुज़र रहा था.. उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी गोद में उठा लिया.. भूख के मरे मेरे प्राण निकल रहे थे.. मैंने उससे खाने को कुछ माँगा.. उसने नि:संकोच अपनी रोटी मुझे यह कह कर दे दी कि- "मैं हर रोज़ यही खाता हूँ, लेकिन आज मुझसे ज़्यादा जरुरत इसकी तुम्हें है.. सो ये लो और अपनी भूख को तृप्त करो.।"

जैसे ही माँ ने उसकी बात सुनी, माँ का चेहरा पीला पड़ गया और अपने आप को सँभालने के लिए उसने दरवाज़े का सहारा लीया..।

उसके मस्तिष्क में वह बात घुमने लगी कि कैसे उसने सुबह रोटी में जहर मिलाया था, अगर उसने वह रोटी आग में जला के नष्ट नहीं की होती तो उसका बेटा उस रोटी को खा लेता और अंजाम होता उसकी मौत..?

और इसके बाद उसे उन शब्दों का मतलब बिलकुल स्पष्ट हो चूका था- "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा, और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा.।।

             🍁" निष्कर्ष "🍁
             
हमेशा अच्छा करो और अच्छा करने से अपने आप को कभी मत रोको, फिर चाहे उसके लिए उस समय आपकी सराहना या प्रशंसा हो या ना हो..।
             

Personality:

Thursday, 3 March 2016

नज़र पड़े तो खामोश हो गए:

"कस्ती तूफानो से निकल सकती है,
तकदीर किसी भी वक्त बदल सकती है
हौसला रखो, इरादा न बदलो,
जिसे दिल से चाहते हो वो चीज कभी भी मिल सकती है.."

सागर मीना जाम सुराही साकी दे मैखाने दे
मौला तूने प्यास ये दी है अब तू ही पैमाने दे ..

ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी
मैं भी बर्बाद हो गया तू भी

वो सुना रहे थे अपनी वफाओ के किस्से।
हम पर नज़र पड़ी तो खामोश हो गए।

मैंने मांगी थी उजाले की फ़क़त एक किरन फ़राज़,
तुमसे ये किसने कहा के आग लगा दी जाये...

बस यूँ ही चल पड़ते हैं अनजान राहों में अनदेखी मंज़िल की ओर
वैसे भी जानी पहचानी राहें भी तो कभी कभी अनजान निकलती हैं

मीठास:

Wednesday, 2 March 2016

खुदा किसी एक का नहीं होता:

कोई लश्कर है कि बढ़ते हुए ग़म आते हैं
शाम के साए बहुत तेज़ क़दम आते हैं

एक पल "में वहाँ से हम उठे,
बैठने  में जहाँ "ज़माने" लगे

जिस को ख़ुश रहने के सामान मयस्सर सब हों
उस को ख़ुश रहना भी आए ये ज़रूरी तो नहीं.

हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए

रिश्तों का ए'तिबार वफ़ाओं का इंतिज़ार
हम भी चराग़ ले के हवाओं में आए हैं

हम लफ्ज सोच सोच के थक से गये ;
और आपने फुल देके इज़हार कर दिया ...

मेरे हिस्से की जमीं बंजर थी मै वाकीफ न था,
बेसबब इल्जाम मै देता रहा बरसात को मैं...

"हमने उल्फ़त के नशे में आकर उसे खुदा बना डाला
होश तब आया जब उसने कहा कि खुदा किसी एक का नहीं होता।"

तू मेरी खामोशी पढ़ ले तो सुकून आता है:

किसी बुरे के बुरा कहने से आप बुरे नहीं बन जाते..
जहाँ तक हो सके अपनी राह चलें और फिर कहने वालों को जो चाहें कहने दें..

हम तुम, एक ही तार पे बैठे दो पंछी थे ।
एक उड़ जाये अचानक,
तो दुसरे को सम्भलने में वक़्त लगता है ।।

दिल में समा गई हैं क़यामत की शोख़ियाँ
दो-चार दिन रहा था किसी की निगाह में

मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी
तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं

वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है
मेरी यादों में इक भूला हुआ चेहरा भी रहता है

शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने हंसाने से रही।

हाल तो पूछ लूँ तेरा पर डरता हूँ आवाज़ से तेरी;
जब जब सुनी है कम्बख़्त मोहब्बत ही हुई है!

कोई प्यार से जरा सी फुंक मार दे तो बुझ जाऊं....
नफरत से तो तुफान भी हार गए मुझे बुझाने में....

ऐसा नहीं कि शख्स अच्छा नहीं था वो
जैसा मेरे ख्याल में था बस वैसा नहीं था वो..

सुना है काफी पढ़ लिख गए हो तुम !
कभी वो भी तो पढ़ो जो हम कह नहीं पाते !!....

यूँ तो अल्फ़ाज़ बहुत हैं शायरी में बयां करने के लिए..
पर जो तुम मेरी खामोशी पढ़ लेते तो सुकून आ जाता..!

डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा

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