Sunday, 28 February 2016

जब सारे आपके हारने का इंतज़ार करते हैं:

बन्सी: अक्लवालों के मुक़द्दर में ये जोक-ए-जूनून कहाँ,
ये इश्कवाले हैं जो हर चीज़ लुटा देते हैं

बन्सी: हमारी नित्य की दिनचर्या में हम ये भूल जाते हैं कि हमारा जीवन तो एक अविरत अद्वित्व अद्भुत अनुभव है।

बन्सी: जीतने का मजा तब आता है, .
जब सारे आपके हारने का इन्तजार कर रहे हो......॥

बन्सी: "आग लगाने कोई आया है नशेमन मे सोचता हूँ,
उन तिनकों का क्या होगा जिनसे वाबस्ता थे चमन कई"

बन्सी: ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं
मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है

बन्सी: सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा
मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा

बन्सी: अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ

बन्सी: उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

बन्सी: रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी
देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है

बन्सी: खुशी की आँख में आंसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते

बन्सी: कुछ इस तरह शरीक तेरी अंजुमन में हूँ
महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी मुझे

बन्सी: अब ये न पूछना की ये अल्फ़ाज़ कहाँ से लाता हूँ,
कुछ चुराता हूँ दर्द दूसरों के, कुछ अपनी सुनाता हूँ|

बन्सी: वो मेरे पास से गुजरा , न दिल धड़का न लब लरजे,
क़यामत है ख़ामोशी से क़यामत का गुजर जाना...

Friday, 26 February 2016

लहरें तमाम कश्तियाँ डुबो क्र आई है

बन्सी:
कोई ना कोई शौक़ ज़रूरी है,

सिर्फ़ अज़मत भरी ज़िंदगी का वज़न
कोई कैसे उठा  पाएगा..

बन्सी:
सियासत मुफलिसों पर इस तरह अहसान करती हैं.

ये आँखें छीन लेती है चश्मे दान करती है !!

बन्सी:
वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है

मेरी यादों में इक भूला हुआ चेहरा भी रहता है

बन्सी:
मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन

आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन

बन्सी:
तौहीन ना करो नीम को कड़वा कहकर.....

जिंदगी के तजुर्बे नीम से भी कड़वे होते है!

बन्सी:
गैरों के दिल पर राज़ करने का
कहाँ शौक था मेरा

मुझे तो अपनो ने ही भीखारी
बना कर छोड़ दिया

बन्सी:
मेरी खामोशियों का राज़ मुझे खुद नहीं मालूम...

जाने फिर क्यूँ लोग मुझे मग़रूर समझते हैं...

बन्सी:
मैंने रोका नहीं वो चला भी गया,
बेबसी दूर तक देखती रह गई,

मेरे घर की तरफ धूप की पीठ थी,
आते-आते इधर चाँदनी रह गई !

बन्सी:
जिस नजाकत से ये लहरे मेरे पैरो को छुती है,

यकीन नही होता की ये तमाम कश्तियाँ डूबोकर आ रही है...

Thursday, 25 February 2016

ज़रा पंख आये तो आशियाना छोड़ दिया:

बन्सी:
आपकी कल्पनाशक्ति आपके जीवन के आनेवाले आकर्षणो का पूर्वालोकन है।
Your imagination is the preview to life's  coming attractions.

बन्सी:
A smart man only believes half of what he hears, a wise man know which half.

बन्सी:
#Gita अ.6*18

वश में किया हुआ मन जब परमात्मा में ही पूर्ण स्थित हो जाता है, तब भोगों से परे हुआ पुरुष योग युक्त कहा जाता है।

बन्सी:
#Gita अ.6*18
यदा विनियतं चित्तमआत्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।

बन्सी:
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है,

आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा...

बन्सी:
एक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक
एक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे

बन्सी:
सवाल जहर का नहीं था, वो तो मैं पी गया
तकलीफ लोगों को तब हुई, जब मैं जी गया

बन्सी:
गरीबी थी जो सबको एक आंचल में
सुला देती थी,
अब अमीरी आ गई सबको अलग मक़ान चाहिए..!

बन्सी:
मैं डर  रहा  हूँ  हवा से  ये पेड़  गिर न पड़े
कि इस पे चिडियों का इक ख़ानदान रहता है

बन्सी:
ख़ामोशी पसन्द थी उन्हें
मैंने भी लफ्जों के गले काट दिये

बन्सी: बहुत नज़दीक आते जा रहे हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या

बन्सी: समुंदरों के सफ़र जिन के नाम लिक्खे थे
उतर गए वो किनारों पे कश्तियाँ ले कर

बन्सी:
फराज ए दार पे रखते चलो सरों के चिराग
जहाँ तलक ये सितम की स्याह रात चले।

बन्सी:
ख्वाब ख्याल, मोहब्बत, हक़ीक़त, गम और तन्हाई,

ज़रा सी उम्र मेरी किस-किस के साथ गुज़र गयी!

बन्सी:
ना जाने वो बच्चा किससे खेलता होगा,

वो जो मेले में दिन भर खिलौने बेचता है...

बन्सी:
''ख़ामोशी है ज़मीं से आस्माँ तक किसी की दास्ताँ है और मैं हूँ''

बन्सी:
देना है तो दे खुदा, ऐसा हमें मिज़ाज ।

खुद्दारी सर पर रहे, ठोकर में हो ताज ।।

बन्सी:
हम इतने खूबसुरत तो नही है मगर हाँ...
जिसे आँख भर के देख लें....उसे उलझन में  डाल देते हैं..!!

बन्सी:
ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना भी नहीं

बन्सी:
इतना, आसान हूँ कि हर किसी को समझ आ जाता हूँ,

शायद तुमने ही पन्ने छोड़ छोड़ कर पढ़ा है मुझे..

बन्सी:
आँखें जो उठाए तो मोहब्बत का गुमाँ हो
नज़रों को झुकाए तो शिकायत सी लगे है

बन्सी:
परिन्दों की फ़ितरत से आए थे वो मेरे दिल में,

ज़रा पंख निकल आए तो आशियाना छोड दिये..

बन्सी:
इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

बन्सी:
किताब खोलूँ तो हर्फ़ों में खलबली मच जाए
क़लम उठाऊँ तो काग़ज़ को फैलता देखूँ

बन्सी:
अब तो बदनामी से शोहरत का वो रिश्ता है कि लोग
नंगे हो जाते हैं अख़बार में रहने के लिए

Monday, 22 February 2016

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नही:

इस सादगी पै कौन न मर जाये ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।

आज की रात तुझे आखरी ख़त और लिख दूं,
कौन जाने यह दिया सुबह तक चले न चले

रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके...
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है

ये आरज़ू थी कि मिलें और ऐसी कुछ रातें |
तेरे सुकूत से कल रात बार रहीं बातें ||

थक गया हूँ चलते-चलते, अब रुक जाना चाहता हूँ...
तन गया था बढ़ते-बढ़ते, अब झुक जाना चाहता हूँ....

कभी सागर छलका दिया कभी एक बूँद को तरसा दिया.....
तेरे प्यार और तेरी बेरुख़ी ने हमें क्या क्या मंज़र दिखा दिया.....

धुआं अपना अक्स ढूंढ ही लेता है:

बन्सी:
अपने अश्क छुपा लो उन ऑखो मे कहीं
जिनमे मेरा अस्क कई बार दिखाई देता है

बन्सी:
बात बहुत मामूली सी थी उलझ गयी तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बर्बाद किया

बन्सी:
ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

बन्सी:
यारों की महफ़िल में क़त्ल के इंतज़ाम काफ़ी थे
फ़ना होने के लिए मगर बस दो जाम काफ़ी थे

बन्सी:
जिसे पूजा था हमने वो खुदा तो न बन सका, हम ईबादत करते करते फकीर हो गए...!

बन्सी:
हर बार जब् में वास्तविकता से मुंह मोड़ता हूँ, वो दूसरा रास्ता इख़्तियार करके सामने आ जाती है।

बन्सी:
एक दोशीज़ा सड़क पर धूप में है बे-क़रार
चूड़ियाँ बजती हैं कंकर कूटने में बार बार

बन्सी:
तू छोड़ गया तो ख़ता इसमें तेरी क्या है,
हर शख़्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता...

बन्सी:
मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर-ए-शब तक तो ले आया
तुम इस का ख़ूबसूरत सा कोई अंजाम लिख देना

बन्सी:
समुंदरों के सफ़र जिन के नाम लिक्खे थे
उतर गए वो किनारों पे कश्तियाँ ले कर

बन्सी:
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है

बन्सी:
गुफ्तगू करते रहिये ये इंसानी फितरत है,
बन्द मकान में जाले लग जाते हैं यही क़ुदरत है

बन्सी:
धुआँ  भी ढूँढ  ही लेता है अपना वजूद,
कभी ख़ुद  को खोकर कभी हवा का होकर...

Sunday, 21 February 2016

समाज तो पागल है:

खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कथा है। एक गांव में एक जादूगर आया और उसने गांव के कुएं में मंत्र पढ़ कर कुछ दवा फेंक दी और कहा, जो भी इसका पानी पीएगा, पागल हो जाएगा। अब गांव में दो ही कुएं थे, एक गांव का और एक राजा का। सारा गांव पागल हो गया सिर्फ राजा, उसका वजीर, उसकी रानी, इनको छोड़ कर। राजा बड़ा खुश हुआ। उसने कहा, हम बचे। आज अलग कुआं था तो बच गए।

अब लोग प्यासे थे तो पानी तो पीना ही पड़ा। और एक ही कुआं था, तो कोई उपाय भी न था। सारा गांव पागल हो गया। राजा खुश है, परमात्मा को धन्यवाद देता है कि खूब बचाया। लेकिन सांझ होते—होते राजा को पता चला, यह बचना बचना न हुआ। क्योंकि सारे गांव में एक अफवाह जोर पकड़ने लगी कि मालूम होता है, राजा का दिमाग खराब हो गया है।

जब सारा गांव पागल हो जाए और एक आदमी स्वस्थ बचा हो तो सारा गांव सोचेगा ही कि पागल हो गया यह आदमी। भीड़ एक तरफ हो गई, राजा एक तरफ पड़ गया। इस भीड़ में राजा के सिपाही भी थे, सेनापति भी थे। इस भीड़ में राजा के पहरेदार भी थे, अंगरक्षक भी थे। राजा तो घबड़ा गया। सांझ होते—होते तो सारा गांव महल के चारों तरफ इकट्ठा हो गया। और लोगों ने नारे लगाए कि उतरो सिंहासन से। तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हम किसी स्वस्थ—मन व्यक्ति को राजा बनाएंगे। राजा ने अपने वजीर से कहा, अब बोलो, क्या करें? यह तो महंगा पड़ गया। यह कुआं आज न होता तो अच्छा था। वजीर ने कहा, कुछ घबड़ाने की बात नहीं। मैं इन्हें रोकता हूं समझाता हूं आप भागे जाएं, उस कुएं का पानी पी लें। गांव के कुएं का पानी पी लें। आप जल्दी पानी पीए, अब देर करने की नहीं है।

वह भागा राजा। वजीर तो लोगों को बातों में उलझाए रहा। राजा वहा से पानी पीकर आया तो नंगधडंग, नाचता। गांव बड़ा खुश हुआ। उस रात बड़ा उत्सव मनाया गया। लोगों ने ढोल पीटे, बांसुरी बजाई। लोग खूब नाचे। लोगों ने कहा, हमारे राजा का मन स्वस्थ हो गया।

भीड़ पागल है, समाज पागल है, इस समाज के साथ किसी को समायोजित कर देने का कोई बड़ा मूल्य थोड़े ही है!

सोचना; समाज तो खुद ही रुग्ण है। इसके अंग बन कर भी तुम स्वस्थ थोड़े ही हो सकोगे! यह समाज तो बिलकुल रुग्ण है। यह हो सकता है कि जिनको तुम पागल कहते हो उनका रोग थोड़ा ज्यादा है और जिनको तुम पागल नहीं कहते उनका रोग थोड़ा कम है। मात्रा का भेद हो सकता है, परिमाण का अंतर हो सकता है, लेकिन कोई गुणात्मक भेद नहीं है। ऐसा हो सकता है, तुम निन्यानबे डिग्री पागल हो, जिसको तुम पागल कहते हो वह सौ डिग्री के पार चला गया। यह डिग्री की ही बात है। तुम जरा उबल गए। दिवाला निकल गया, पत्नी मर गई, तुम भी एक सौ एक डिग्री पर पहुंच जाओगे। जिनको तुम कहते हो पागल नहीं हैं, वे कभी भी पागल हो सकते हैं। जिनको तुम कहते हो पागल हैं, वे कभी भी फिर सामान्य हो सकते हैं। अंतर गुण का नहीं है, मात्रा का है।

समाज तो खुद ही पागल है। तीन हजार सालों में पांच हजार युद्ध लड़े गए हैं। और पागलपन क्या होगा? सच तो यह है, व्यक्ति इतने पागल कभी होते ही नहीं जितना समाज पागल है। व्यक्तियों ने इतने अपराध कभी किए ही नहीं जितने समाज ने अपराध किए हैं।

इस समाज के साथ व्यक्ति को समायोजित कर देना कोई स्वस्थ होने की बात नहीं है, कोई स्वस्थ होने का मापदंड नहीं है। यह समाज रूग्‍ण है। इस समाज के साथ किसी को समायोजित करने का अर्थ इतना ही हुआ कि भीड़ के रोग के साथ तुमने तालमेल बिठा दिया।

अपनों को आगे रखो:

एक बार एक कुत्ते और गधे के बीच शर्त लगी कि जो जल्दी से जल्दी दौडते हुए दो गाँव आगे रखे एक सिंहासन पर बैठेगा...
वही उस सिंहासन का अधिकारी माना जायेगा, और राज करेगा.

जैसा कि निश्चित हुआ था, दौड शुरू हुई.

कुत्ते को पूरा विश्वास था कि मैं ही जीतूंगा.

क्योंकि ज़ाहिर है इस गधे से तो मैं तेज ही दौडूंगा.

पर अागे किस्मत में क्या लिखा है ... ये कुत्ते को मालूम ही नही था.

शर्त शुरू हुई .

कुत्ता तेजी से दौडने लगा.

पर थोडा ही आगे गया न गया था कि अगली गली के कुत्तों ने उसे लपकना ,नोंचना ,भौंकना शुरू किया.

और ऐसा हर गली, हर चौराहे पर होता रहा..

जैसे तैसे कुत्ता हांफते हांफते सिंहासन के पास पहुंचा..

तो देखता क्या है कि गधा पहले ही से सिंहासन पर विराजमान है.

तो क्या...!  
   गधा उसके पहले ही वहां पंहुच चुका था... ?

और शर्त जीत कर वह राजा बन चुका था.. !

और ये देखकर

निराश हो चुका कुत्ता बोल पडा..

अगर मेरे ही लोगों ने मुझे आज पीछे न खींचा होता तो आज ये गधा इस सिंहासन पर न बैठा होता ...

तात्पर्य ...

१. अपने लोगों को काॅन्फिडेंस में लो.

२. अपनों को आगे बढने का मौका दो,  उन्हें मदद करो.

३. नही तो कल बाहरी गधे हम पर राज करने लगेंगे.

४. पक्का विचार और आत्म परीक्षण करो.

⭐जो मित्र आगे रहकर होटल के बिल का पेमेंट करतें हैं, वो उनके पास खूब पैसा है इसलिये नही ... ⭐

⭐बल्कि इसलिये.. कि उन्हें मित्र  पैसों से अधिक प्रिय हैं ⭐

⭐ऐसा नही है कि जो हर काम में आगे रहतें हैं वे मूर्ख होते हैं, बल्कि उन्हें अपनी जवाबदारी का एहसास हरदम बना रहता है इसलिये  ⭐

⭐जो लडाई हो चुकने पर पहले क्षमा मांग लेतें हैं, वो इसलिये नही, कि वे गलत थे... बल्कि उन्हें अपने लोगों की परवाह होती है इसलिये.⭐

⭐जो तुम्हे मदद करने के लिये आगे आतें हैं वो तुम्हारा उनपर कोई कर्ज बाकी है इसलिये नही... बल्कि वे तुम्हें अपना मानतें हैं इसलिये.

Friday, 19 February 2016

गलत को गलत बताओ:

एक बादशह था जिसकी प्रजा अच्छे
भारतीयों की तरह सोई हुई थी..!

बहुत से लोगों ने कोशिश की प्रजा जग
जाए. .
अगर कुछ गलत हो रहा है तो उसका विरोध करे,
लेकिन प्रजा को कोई फर्क नहीं पड़ता था...

एक दिन बादशह ने अनाज के दाम
बढ़ा दिए,
प्रजा चुप रही. .
बादशह ने अजीबो-गरीब कर लगाए,
प्रजा चुप रही. .
बादशह ज़ुल्म करता रहा,
लेकिन प्रजा चुप रही....!

एक दिन बादशह के दिमाग में एक बात आई उसने एक अच्छे-चौड़े रास्ते
को खुदवा के एक पुल बनाया
जबकि वहाँ पुल की कतई आवश्यकता नहीं थी. .
प्रजा फिर भी चुप थी...!

किसी ने नहीं पूछा के भाई
यहाँ तो किसी पुल की आवश्यकता नहीं है फिर आप क्यों बना रहे है ?

अब बादशह ने अपने सैनिक उस पुल
पर खड़े करवा दिए
और पुल से गुज़रने वाले हर व्यक्ति से कर लिया जाने
लगा,
फिर भी किसी ने कोई विरोध नहीं किया..!

फिर राजा ने अपने सैनिको को आदेश दिया कि जो भी इस पुल से गुजरे उसको 4 जूते मारे जाए
और एक शिकायत पेटी भी पुल पर रखवा दी कि किसी को अगर कोई शिकायत हो तो अपनी शिकायत लिखकर पेटी मे डाल दे,
लेकिन प्रजा फिर भी चुप |

बादशह रोज़ शिकायत पेटी खोल कर
देखता कि
शायद किसी ने कोई विरोध किया हो, लेकिन उसे हमेशा पेटी खाली मिलती |

कुछ दिनो के बाद अचानक एक
चिट्ठी मिली. .
बादशह खुश हुआ
कि चलो कम-से-कम एक
आदमी तो जागा |

जब चिट्ठी खोली गई तो उसमें लिखा था "हुजूर जूते मारने वालों की संख्या बढ़ा दी जाए. .
हम लोगो को काम पर जाने मे देरी होती है...!!

याद रखिये आप की ये चुप्पी एक दिन
इस देश को ले डूबेगी |
अगर जीना चाहते हो तो गलत को गलत बताओ
और अपनी आवाज़ उठाओ....!!

Thursday, 18 February 2016

है अजब् शहर की ज़िन्दगी:

है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है
कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है !!

कोशिश भी कर, उम्मीद भी रख, रस्ता भी चुन
फिर इसके बाद थोड़ा मुकद्दर तलाश कर

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,
पढ़ कर के चंद किताबें वो भी..हम जैसे हो जायेंगें.

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता

परेशानियों ने भी क्या खूब याद रखा मेरे घर का पता
बस ये खुशिया ही है जो आवारा निकली

You'll only learn to find happiness when you choose to let go of the thing that keeps you hurting.

Wednesday, 17 February 2016

नदी का पूरा जल बह जाये, इन्तजार कर रहा हूँ:

एक संत बहुत दिनों से नदी के किनारे बैठे  थे, एक दिन किसी व्यकि ने उससे पूछा आप नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं ?

संत ने कहा, इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर रहा हूँ।

व्यक्ति ने कहा  यह कैसे हो सकता है. नदी तो बहती ही रहती है सारा पानी अगर बह भी जाए तो, आप को क्या करना।

संत ने कहा मुझे दुसरे पार जाना है। सारा जल बह जाए, तो मैं चल कर उस पार जाऊँगा।

उस व्यक्ति ने गुस्से में कहा, आप पागल नासमझ जैसी बात कर रहे हैं, ऐसा तो हो ही नही सकता।

तब संत ने मुस्कराते हुए कहा
यह काम तुम लोगों को देख कर ही सीखा  है। तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाएं, कुछ शांति मिले, फलाना काम खत्म हो जाए तो सेवा, साधन -भजन, सत्कार्य करेगें।

जीवन भी तो नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो, तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करूँ।

सहरा को नाज़ है वीरानी पे:

सहरा को बहुत नाज़ है वीरानी पे अपनी
वाक़िफ़ नहीं शायद मेंरे उजड़े हुए घर से

दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
दरवाज़ा खोलने केलिए घर का घर उठा

उन्हें ठहरे समुंदर ने डुबोया
जिन्हें तूफ़ाँ का अंदाज़ा बहुत था

लोग मारने आये पत्थर तो वो भी साथ थे....
जिनके गुनाह की सजा हमारे सिर थी।

"हिम्मत ए रौशनी बढ़ जाती है, हम चिरागों की इन हवाओं से, कोई तो जा के बता दे उस को , दर्द बढता है अब दुआओं से"

Tuesday, 16 February 2016

सवाल जवाव सीधे उलझे:

सीधे से सवाल मेरे...
उलझे से जवाब तेरे...

कमाल का जिगर रखते है यहाँ कुछ लोग ,
दर्द  पढ़ते है और, आह तक नहीं करते…?

तारीफ किसी की करने के लिए जिगर चाहिये..
बुराई तो बिना हुनर के किसी की भी कर सकते हैं...!!

मसरूफ़" रहने का अंदाज़ ,
तुम्हें तनहा ना कर दे ...

"रिश्ते" फ़ुर्सत के नहीं ,
'तवज्जो' के मोहताज होते है...

"वक्त" जब भी शिकार करता है....
हर "दिशा" से वार करता है....

शाम को थक कर टूटे झोपड़े में सो जाता है वो मजदूर, जो शहर में ऊंची इमारतें बनाता है....

खुदा के पास तो देने को हजार तरीके हैं,

माँगने वाले तू देख तुझमें कितने सलीके हैं..

मैं ने भी देखने की हद कर दी

और
वो भी तस्वीर से निकल आया

तकलीफों ने ऐसा सँवारा है मुझको..

हर गम के बाद शायरी निखर जाती है..!

हर वक़्त ज़िन्दगी से गिले शिक़वे ठीक नहीं,

कभी तो छोड़ दीजिये कश्तियों को लहरों के सहारे।

ईश्वर है उसका जो सर झुकाना सिख ले:

कशाकश है  उम्मीद-ओ-यास की  ये ज़िंदगी
क्या है,
इलाही ऐसी हस्ती से तो अच्छा था अदम मेरा!

रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़
कम से कम रात का नुक़सान बहुत करता है

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पे कि आसाँ हो गईं

होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है
रंज कम सहता है एलान बहुत करता है

चले तो पाँव के नीचे कुचल गई कोई शय
नशे की झोंक में देखा नहीं कि दुनिया है

उसकी महफिल में बैठ कर देखो,
जिंदगी कितनी खूबसूरत है

जी रहा हूं इस एतिमाद के साथ
जिंदगी को मेरी जरूरत है

उन मकानों में भी इंसान ही रहते होंगे
रौनक़ें जिन में नहीं आप की महफ़िल की सी

दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

हमने अपनी मुफलिसी का इस तरह रखा भरम,
राबते कम कर दिये,मग़रूर कहलाने लगे।

दौलत - ए- हुस्न पा के दुनिया में ..
कौन सा बुत है जो खुदा न हुआ .

एक रात वो गया था, जहाँ बात रोक के!
अब तक रुका हुआ हूँ, वहीं रात रोक के!!"

तजुर्बा किसी कंजूस के द्वारा इकठ्ठी की गई बचत की तरह होता है । बुद्धिमता विरासत में मिली दौलत है जो फिजूलखर्ची से भी खत्म नहीं होती ।

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई
जैसे कोई चीज़ चलते वक़्त घर में रह गई

चाँद तारे सभी हमसफ़र थे मगर………?

ज़िंदगी रात थी, रात ही काली रही

कहाँ से लाऊं वो हिम्मते
मासूमियत के दिन,
जिसे लोग कहा करते थे
बच्चा है जाने दो...

इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा

उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

मोहब्बत की तरह नफरत का भी एक दिन तय कर दे कोई,

ये रोज़-रोज़ की नफरतें अच्छी नहीं...

सारा जहाँ है उसका, जो मुस्कुराना सीख ले |
रोशनी है उसकी , जो शमा जलाना सीख ले ||

हर गली में है "मन्दिर" , हर राह में है "मस्जिद.."
"ईश्वर" है उसका, , जो सिर झुकाना सीख ले ||

Saturday, 13 February 2016

हमें अपने आप को खुद सम्भालना चाहिए:

एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे , एक दिन उनके पास एक निर्धन आदमी आया और बोला की मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये ,मैं उसमे खेती करूँगा और खेती करके कमाई करूँगा,

वह अतिश्रेष्ठ व्यक्ति बहुत दयालु थे
उन्होंने उस निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया और साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये और कहा की इन पांच  किसानों को साथ में लेकर खेती करो, खेती करने में आसानी होगी,
इस से तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे।
वो निर्धन आदमी ये देख के बहुत खुश हुआ की उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये।

लेकिन वो आदमी अपनी इस ख़ुशी में बहुत खो गया, और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे और वह निर्धन आदमी अपनी ख़ुशी में डूबा रहा,  और जब फसल काटने का समय आया तो देखा की फसल बहुत ही ख़राब  हुई थी , उन पांच किसानो ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था न ही अच्छे बीज डाले ,जिससे फसल अच्छी हो सके |

जब वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस माँगा तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला की मैं बर्बाद हो गया , मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका।

अब यहाँ ध्यान दीजियेगा-

वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति हैं -'' भगवान"

निर्धन व्यक्ति हैं -"हम"

खेत है -"हमारा शरीर"

पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां--आँख,कान,नाक,जीभ और मन |

प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल(कर्म) करने को दिया है और हमें इन पांच किसानो को अर्थात इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहियें ,जिससे जब वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें तो हमें रोना न पड़े।

Tuesday, 9 February 2016

कुछ तुम बदलो कुछ हम:

हुआ उजाला तो हम उन के नाम भूल गए
जो बुझ गए हैं चराग़ों के लौ बढ़ाते हुए

मैं उस के वास्ते सूरज तलाश करता हूँ
जो सो गया मेरी आँखों को रत-जगा दे कर

लाख आफ़ताब पास से होकर गुज़र गए
हम बैठे इंतज़ार-ए-सहर देखते रहे

न वो खिज़ा रही बाक़ी न वो बहार रही..
रही तो मेरी कहानी ही यादगार रही !!

हुई है तुझसे जो निस्बत उसी का सदका है,
वरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है।

इसलिए हम ने बुराई से भी नफ़रत नहीं की
क्यूँकि हम ढूँढ रहे थे कोई अच्छा इक दिन

अब न काबा की तमन्ना न किसी बुत की हवस
अब तो ज़िंदा हूँ किसी मरकज़-ए-इंसाँ के लिए

कुछ कहने पे तूफ़ान उठा लेती है दुनिया
अब उस पे क़यामत है कि हम कुछ नहीं कहते

तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला

सर जिस पे भी झुक जाए उसे दर नहीं कहते
हर दर पे जो झुक जाए उसे सर नहीं कहते

आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते बुझते एक ज़माना लगता है

घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
इक दिन अपना पीछा कर के देखा जाए

इक तअल्लुक़ था जिसे आग लगा दी उसने
अब मुझे देख रहा है वो धुआँ होते हुए

दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा 💞

नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अहद में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन

हमारे बाद अंधेरा रहेगा महफ़िल में
बहुत चराग़ जलाओगे रौशनी के लिए

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता,
मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो ll

कहाँ चिराग जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नही मिलता

बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई,
जैसे कोई चीज़ चलते वक़्त घर में रह गई

ये इश्क़ मोहब्बत की, रिवायत भी अजीब है....
पाया नहीं है जिसको, उसे खोना भी नहीं चाहते....

मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें

डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा

 [8:11 AM, 8/24/2023] Bansi Lal: डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा [8:22 AM, 8/24/2023] Bansi La...