Tuesday, 8 October 2019

मुकम्मल कहाँ हुई ज़िंदगी किसी की,

 मुकम्मल कहाँ हुई ज़िंदगी किसी की,
आदमी कुछ खोता ही रहा कुछ पाने के लिए!!
ग़र फैसला वक़्त पर कर लेते....
तो "फ़ासलें" इस क़दर ना होते..............
नजर से दूर रखकर भी मुझ पर नजर रखते हो...
आखिर बात क्या है जो इतनी खबर रखते हो..!
तकिये पर अश्क़ देख कर सवाल सौ उठे...
हँसकर हमने कह दिया ख्वाबों के दाग हैं...
ऐक ही शख्स था जो समझता था मुझे,
फिर यूं हुआ के वह भी समझदार हो गया...!!!!
हौसलों का सबूत देना था
क्या करता ?
ठोकरें खा के मुस्कुराना पड़ा
परिवार और समाज
दोनों ही बर्बाद होने लगते हैं...
जब समझदार " मौन "
और
नासमझ " बोलने " लगते हैं...

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