Thursday, 31 December 2015

दृष्टि नहीं दृष्टिकोण साकारात्मक होना चाहिए:

गुरू से शिष्य ने कहा: गुरूदेव ! एक व्यक्ति ने आश्रम के लिये गाय भेंट की है।
गुरू ने कहा - अच्छा हुआ । दूध पीने को मिलेगा।
एक सप्ताह बाद शिष्य ने आकर गुरू से कहा: गुरू ! जिस व्यक्ति ने गाय दी थी, आज वह अपनी गाय वापिस ले गया ।
गुरू ने कहा - अच्छा हुआ ! गोबर उठाने की झंझट से मुक्ति मिली।
'परिस्थिति' बदले तो अपनी 'मनस्थिति' बदल लो । बस दुख सुख में बदल जायेगा.।
"सुख दुख आख़िर दोनों
मन के ही तो समीकरण हैं।"

अंधे को मंदिर आया देख
लोग हँसकर बोले -
"मंदिर में दर्शन के लिए आए तो हो,
पर क्या भगवान को देख पाओगे?"
अंधे ने कहा -"क्या फर्क पड़ता है,
मेरा भगवान तो
मुझे देख लेगा."
द्रष्टि नहीं द्रष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए।

अनन्त सागर:

नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा। यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर- उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?
कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।
नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न
पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमा हीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी। कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।

Wednesday, 30 December 2015

ओशो " प्रार्थना":


मैं एक घर में मेहमान था,एक ग्रामीण घर में। अब तो बिजली आ गयी उस गांव में। बिजली जली, अब घर की बिजली है, खुद ही ग्रामीण ने जलायी और खुद ही सिर झुकाकर नमस्कार किया। मेरे साथ एक मित्र बैठे थे पढ़े-लिखे हैं, डाक्टर हैं। उन्होंने कहा : यह क्या पागलपन है? अब तो बिजली हमारे हाथ में है। अब तो यह कोई इंद्र का धनुष नहीं है। अब तो यह कोई इंद्र के द्वारा लायी गयी चीज नहीं है। यह तो हमारे हाथ में है, हमारे इंजीनियर ला रहे हैं। और तू खुद अभी बटन दबाकर इसको जलाया है।
वह ग्रामीण तो चुप रह गया। उसके पास उत्तर नहीं था। लेकिन मैंने उन डाक्टर को कहा कि उसके पास भला उत्तर न हो, लेकिन उसकी बात में राज है और तुम्हारी बात में राज नहीं है। और तुम्हारी बात बड़ी तर्कपूर्ण मालूम पड़ती है। यह सवाल ही नहीं है कि बिजली कहां से आयी। कुल सवाल इतना है कि झुकने का कोई बहाना मिले तो चूकना मत। जिंदगी जितनी झुकने में लग जाए उतना शुभ है, क्योंकि उतनी ही प्रार्थना पैदा होती है। और जितने तुम झुकते हो उतना ही परमात्मा तुम में झांकने लगता है,झुके हुओं में ही झांकता है !

Tuesday, 29 December 2015

अपनों को हरा कर क्या कोई जीत पाया है क्या:

  वर्तमान समय में परिवारों की जो स्थिति हो गयी है वह अवश्य चिन्तनीय है। घरों में आज सुनाने को सब तैयार हैं मगर कोई सुनने को राजी नहीं। रिश्तों की मजबूती के लिये हमें सुनाने की ही नहीं अपितु सुनने की आदत भी डालनी पड़ेगी।

    माना कि आप सही हैं मगर परिवारिक शान्ति बनाये रखने के लिये बेवजह सुन लेना भी कोई जुर्म नहीं बजाय इसके कि अपने को सही साबित करने के चक्कर में पूरे परिवार को ही अशांत बनाकर रख दिया जाये। अपनों को हराकर आप कभी नहीं जीत सकते, अपनों से हारकर ही आप उन्हें जीत सकते हैं। जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वही तो बुद्धिमान है।

  आज हर कोई अधिकार की बात कर रहा है। मगर अफ़सोस कोई कर्तव्य की बात नहीं कर रहा। आप अपने कर्तव्य का पालन करो, प्रतिफल मत देखो। जिन्दगी की खूबसूरती ये नहीं कि आप कितने खुश हैं, अपितु ये है कि आपसे कितने खुश हैं।

                

अपने झगड़े में ज़माने की ज़रूरत क्या है:

Bansi:
जहां हो जैसे हो, वहीं वैसे ही रहना तुम,
तुम्हें पाना जरुरी नहीं, तुम्हारा होना ही काफी है !

Bansi:
पलके भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आंखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते
#बशीर_बद्र

Bansi:
दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
बंदगी हालत से ज़ाहिर है ख़ुदा हो या न हो

Bansi:
कब से खड़े हुए हैं उसी रहगुजर पे हम,
जहाँ कह के गए थे तुम..'यहीं रुकना अभी आते हैं'

Bansi:
आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है

Bansi:
ज़िंदगी यूँही बहुत कम है मोहब्बत के लिए
रूठ कर वक़्त गँवाने की ज़रूरत क्या है

Bansi:
पहले इसमें इक अदा थी , नाज़ था ,अंदाज़ था
रूठना अब तो तेरी आदत में शामिल हो गया

Bansi:
गैर को दर्द सुनाने की ज़रूरत क्या है?
अपने झगडे में ज़माने की ज़रूरत क्या है?

Saturday, 26 December 2015

कलयुगी माँ बाप:

अर्जुन ने एक रात को स्वप्न में  देखा की एक गाय अपने नवजात बछड़े को प्रेम से चाट रही है। चाटते चाटते  वह गाय उस बछड़े की कोमल खाल को छील देती है। उसके शरीर से रक्त निकलने लगता है और वह बेहोश होकर नीचे गिर जाता है।
अर्जुन प्रातः यह स्वप्न भगवान श्री कृष्ण को बताते है। भगवान मुस्कुरा कर कहते हैं की यह स्वप्न कलियुग का लक्षण है। कलियुग में माता  पिता अपनी संतान को इतना प्रेम करेंगे, उन्हें सुविधाओं का इतना व्यसनी बना देंगे की वे उनमे डूबकर अपनी ही हानि कर बैठेंगे, सुविधाभोगी और कुमार्गगामी बनकर विभिन्न अज्ञानताओं में फंसकर अपने होश गँवा देंगे।
आजकल हो भी यही रहा है। मातापिता बच्चों को मोबाइल, बाइक-कार, कपडे, फैशन की सामग्री और पैसे उपलब्ध करा देते हैं। बच्चों का चिंतन इतना विषाक्त हो जाता है की वो माता पिता से झूठ बोलना, छिपाना, चोरी करना, अपमान करना सीख जाते हैं।

धुआं धुआं जला था दिल:

Bansi:

Be ready when opportunity comes......Luck is the time when preparation and opportunity meet.
🍁🍂🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁

Bansi:

धुआँ धुआँ जला था दिल
धीमे धीमे गुबार उठा,

राख के उस ढेर में
झुलसा हुआ एक ख्वाब मिला।

Bansi:

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
~ मिर्ज़ा ग़ालिब

Bansi:

जरा ठहर ऐ जिंदगी तुझे भी सुलझा दुंगा ,पहले उसे तो मना लू जिसकी वजह से तू उलझी है...

Bansi:

मेरे और ऊस चाँद का मुक़द्दर एक जैसा है दोस्त,

वो तारों में तन्हा मैं यारों में तन्हा..

Bansi:

शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए

Bansi:

तुझ से पहले जो इक शख़्स यहाँ तख़त नशीन था
उसको भी अपने ख़ुदा होने का इतना ही यक़ीन था -हबीब जालिब

Bansi:

कितनी ही उधारीयाँ
रख छोड़ी हैं ज़िंदगी पर

सोचता हूँ; वसूल कर लूँ अभी
या फिर नुकसान ही हो जाने दूँ थोड़ा

Bansi:

जहाँ जहाँ कोई ठोकर करे मेरी किस्मत में
वहीं वहीं लिए फिरती है ज़िन्दगी मुझ को

Bansi:

जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते

Bansi:

इस दौरे-मुन्सिफ़ी में ज़रूरी नहीं वसीम
जिस शख्स की ख़ता हो उसी को सज़ा मिले

Bansi:

ये हाथ छोड़ने से पेशतर ख़्याल रहे
ख़ुदा के बाद फ़क़त आप का सहारा है

Bansi:

अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा..
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा..!

Bansi:

शराफतों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं...
किसी का कुछ न बिगाड़ो, तो कौन डरता है..

Bansi:

इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था, कि मेरे थे..
ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे...!

Bansi:

मेरे टूटने का जिम्मेदार मेरा जौहरी ही है,

उसी की ये जिद थी अभी और तराशा जाय....

Bansi:

मुझे तो क़तरा ही होना बहुत सताता है
इसी लिए तो समुंदर पे रहम आता है
:वसीम बरेलवी

Bansi:

मौत के बाद भी तो चलता है
ज़िंदगी तेरे जब्र का नाटक

Bansi:

महोब्बत के ये आँसू है इन्हें अखियों मे रहेने दो_
शरीफ़ों के घर का मस्ला बाहर नही जाता_

Friday, 25 December 2015

लक्ष्मीजी खान रहती है?

एक बूढे सेठ थे । वे खानदानी रईस थे, धन-ऐश्वर्य प्रचुर मात्रा में था परंतु लक्ष्मीजी का तो है चंचल स्वभाव । आज यहाँ तो कल वहाँ!!

सेठ ने एक रात को स्वप्न में देखा कि एक स्त्री उनके घर के दरवाजे से निकलकर बाहर जा रही है।

उन्होंने पूछा : ‘‘हे देवी आप कौन हैं ? मेरे घर में आप कब आयीं और मेरा घर छोडकर आप क्यों और कहाँ जा रही हैं?

वह स्त्री बोली : ‘‘मैं तुम्हारे घर की वैभव लक्ष्मी हूँ । कई पीढयों से मैं यहाँ निवास कर रही हूँ किन्तु अब मेरा समय यहाँ पर समाप्त हो गया है इसलिए मैं यह घर छोडकर जा रही हूँ । मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूँ क्योंकि जितना समय मैं तुम्हारे पास रही, तुमने मेरा सदुपयोग किया । संतों को घर पर आमंत्रित करके उनकी सेवा की, गरीबों को भोजन कराया, धर्मार्थ कुएँ-तालाब बनवाये, गौशाला व प्याऊ बनवायी । तुमने लोक-कल्याण के कई कार्य किये । अब जाते समय मैं तुम्हें वरदान देना चाहती हूँ । जो चाहे मुझसे माँग लो ।

सेठ ने कहा : ‘‘मेरी चार बहुएँ है, मैं उनसे सलाह-मशवरा करके आपको बताऊँगा । आप कृपया कल रात को पधारें ।

सेठ ने चारों बहुओं की सलाह ली ।

उनमें से एक ने अन्न के गोदाम तो दूसरी ने सोने-चाँदी से तिजोरियाँ भरवाने के लिए कहा ।

किन्तु सबसे छोटी बहू धार्मिक कुटुंब से आयी थी। बचपन से ही सत्संग में जाया करती थी ।

उसने कहा : ‘‘पिताजी ! लक्ष्मीजी को जाना है तो जायेंगी ही और जो भी वस्तुएँ हम उनसे माँगेंगे वे भी सदा नहीं टिकेंगी । यदि सोने-चाँदी, रुपये-पैसों के ढेर माँगेगें तो हमारी आनेवाली पीढी के बच्चे अहंकार और आलस में अपना जीवन बिगाड देंगे। इसलिए आप लक्ष्मीजी से कहना कि वे जाना चाहती हैं तो अवश्य जायें किन्तु हमें यह वरदान दें कि हमारे घर में सज्जनों की सेवा-पूजा, हरि-कथा सदा होती रहे तथा हमारे परिवार के सदस्यों में आपसी प्रेम बना रहे क्योंकि परिवार में प्रेम होगा तो विपत्ति के दिन भी आसानी से कट जायेंगे।

दूसरे दिन रात को लक्ष्मीजी ने स्वप्न में आकर सेठ से पूछा : ‘‘तुमने अपनी बहुओं से सलाह-मशवरा कर लिया? क्या चाहिए तुम्हें ?

सेठ ने कहा : ‘‘हे माँ लक्ष्मी ! आपको जाना है तो प्रसन्नता से जाइये परंतु मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे घर में हरि-कथा तथा संतो की सेवा होती रहे तथा परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम बना रहे।

यह सुनकर लक्ष्मीजी चौंक गयीं और बोलीं : ‘‘यह तुमने क्या माँग लिया। जिस घर में हरि-कथा और संतो की सेवा होती हो तथा परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रीति रहे वहाँ तो साक्षात् नारायण का निवास होता है और जहाँ नारायण रहते हैं वहाँ मैं तो उनके चरण पलोटती (दबाती)हूँ और मैं चाहकर भी उस घर को छोडकर नहीं जा सकती। यह वरदान माँगकर तुमने मुझे यहाँ रहने के लिए विवश कर दिया है !!!!

Tuesday, 22 December 2015

ईमानदारी:

गुरूजी विद्यालय से घर लौट रहे थे ।

रास्ते में एक नदी पड़ती थी ।

नदी पार करने लगे तो ना जाने क्या सूझा ,

एक पत्थर पर बैठ अपने झोले में से पेन और कागज निकाल अपने वेतन का  हिसाब  निकालने लगे ।

अचानक…..,

हाथ से पेन फिसला और डुबुक ….

पानी में डूब गया । गुरूजी परेशान ।

आज ही सुबह पूरे पांच रूपये खर्च कर खरीदा था ।

कातर दृष्टि से कभी इधर कभी उधर देखते ,

पानी में उतरने का प्रयास करते ,

फिर डर कर कदम खींच लेते ।

एकदम नया पेन था ,

छोड़ कर जाना भी मुनासिब न था ।

अचानक…….

पानी में एक तेज लहर उठी ,

और साक्षात् वरुण देव सामने थे ।

गुरूजी हक्के -बक्के ।

कुल्हाड़ी वाली कहानी याद आ गई ।

वरुण देव ने कहा , ”गुरूजी, क्यूँ इतने परेशान हैं ।

प्रमोशन , तबादला , वेतनवृद्धि ,क्या चाहिए ?

गुरूजी अचकचाकर बोले , ” प्रभु ! आज ही सुबह
एक पेन खरीदा था ।

पूरे पांच रूपये का ।

देखो ढक्कन भी मेरे हाथ में है ।

यहाँ पत्थर पर बैठा लिख रहा था कि पानी में गिर गया

प्रभु बोले , ” बस इतनी सी बात ! अभी निकाल
लाता हूँ ।”

प्रभु ने डुबकी लगाई ,

और चाँदी का एक चमचमाता पेन लेकर बाहर आ गए ।

बोले – ये है आपका पेन ?

गुरूजी बोले – ना प्रभु । मुझ गरीब को कहाँ ये
चांदी का पेन नसीब । ये मेरा नाहीं ।

प्रभु बोले – कोई नहीं , एक डुबकी और लगाता हूँ

डुबुक …..

इस बार प्रभु सोने का रत्न जडित पेन लेकर आये।

बोले – “लीजिये गुरूजी , अपना पेन ।”

गुरूजी बोले – ” क्यूँ मजाक करते हो प्रभु ।

इतना कीमती पेन और वो भी मेरा । मैं टीचर हूँ ।

थके हारे प्रभु ने कहा , ” चिंता ना करो गुरुदेव ।

अबके फाइनल डुबकी होगी ।

डुबुक ….

बड़ी देर बाद प्रभु उपर आये ।

हाथ में गुरूजी का जेल पेन लेकर ।

बोले – ये है क्या ?

गुरूजी चिल्लाए – हाँ यही है , यही है ।

प्रभु ने कहा – आपकी इमानदारी ने मेरा दिल जीत
लिया गुरूजी ।

आप सच्चे गुरु हैं । आप ये तीनों पेन ले लो ।

गुरूजी ख़ुशी – ख़ुशी घर को चले ।

.
.
कहानी अभी बाकी है दोस्तों —

गुरूजी ने घर आते ही सारी कहानी पत्नी जी को सुनाई

चमचमाते हुवे कीमती पेन भी दिखाए ।

पत्नी को विश्वास ना हुवा ,

बोली तुम किसी का चुरा कर लाये हो ।

बहुत समझाने पर भी जब पत्नी जी ना मानी

तो गुरूजी उसे घटना स्थल की ओर ले चले ।

दोनों उस पत्थर पर बैठे ,

गुरूजी ने बताना शुरू किया कि कैसे – कैसे सब हुवा

पत्नी एक एक कड़ी को किसी शातिर पुलिसिये की तरह जोड़ रही थी कि

अचानक …….

डुबुक !!!

पत्नी का पैर फिसला , और वो गहरे पानी में समा गई ।

गुरूजी की आँखों के आगे तारे नाचने लगे ।

ये क्या हुवा !

जोर -जोर से रोने लगे ।

तभी अचानक ……

पानी में ऊँची ऊँची लहरें उठने लगी ।

नदी का सीना चीरकर साक्षात वरुण देव प्रकट
हुवे ।

बोले – क्या हुआ गुरूजी ? अब क्यूँ रो रहे हो ?

गुरूजी ने रोते हु story प्रभु को सुनाई ।

प्रभु बोले – रोओ मत। धीरज रखो ।

मैं अभी आपकी पत्नी को निकाल कर लाता हूँ।

प्रभु ने डुबकी लगाईं ,

और …..
..
थोड़ी देर में

वो सनी लियोनी को लेकर प्रकट हुवे ।

बोले –गुरूजी ।

क्या यही आपकी पत्नी जी है ??

गुरूजी ने एक क्षण सोचा ,

और चिल्लाए –

हाँ यही है , यही है ।

अब चिल्लाने की बारी प्रभु की थी ।

बोले – दुष्ट मास्टर ।

टंच माल देखा तो नीयत बदल दी ।

ठहर तुझे श्राप देता हूँ ।

गुरूजी बोले – माफ़ करें प्रभु ।

मेरी कोई गलती नहीं ।

अगर मैं इसे मना करता तो आप

अगली डुबकी में प्रियंका चोपड़ा को लाते ।

मैं फिर भी मना करता तो आप मेरी पत्नी को लाते ।

फिर आप खुश होकर तीनों मुझे दे देते ।

अब आप ही बताओ भगवन ,

इस महंगाई के जमाने में

मैं तीन – तीन बीबीयाँ कैसे पालता ।

सो सोचा , सनी से ही काम चला लूँगा ।

और इस ठंड में आप भी डुबकियां लगा लगा कर थक गये होंगे ।

जाइये विश्राम करिए ।

छपाक …

एक आवाज आई ।

प्रभु बेहोश होकर पानी में गिर गए थे ।

गुरूजी सनी का हाथ थामे
सावधानीपूर्वक धीरे – धीरे नदी पार कर रहे थे ।

तकदीर से आगे न निकल सका:

Bansi:
चलकर देखा है मैने अपनी चाल से तेज .
🌿💐🌿💐🌿💐🌿💐🌿💐
फिर भी वक्त और तकदीर से आगे न निकल सका..!

Bansi:
दर्द की बारिशों में हम अकेले ही थे,
💦💧💦💧💦💧💦💧💦
जब बरसी ख़ुशियाँ ...
☔☔☔☔☔
न जाने भीड़ कहां से आई..

Bansi:
कही पर गम,तो कही पर सरगम,
ये सारे कुदरत के नज़ारे हैं...
🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁
प्यासे तो वो भी रह जाते हैं,
जिनके घर दरिया किनारे हैं...!

Bansi:
"जिस गली में खाई ठोकर, उसी डगर से फिर गुजरा हूँ!
🍃🌹🍃🌹🍃🌹🍃🌹🍃🌹🍃
कई बार किए हैं वादें खुद से, कई बार मैं खुद से मुकरा हूँ!!"

Bansi:
अजीब दस्तूर है जिन्दगी का....
रुठता कोई है और टूटता कोई है....

Bansi:
कोई मुझ से पूछ बैठा "बदलना" किसे कहते हैं,
🌾🌸🌾🌸🌾🌸🌾🌸🌾🌸
सोच में पड़ गया हूँ मिसाल किस की दूँ "मौसम" की या "अपनों" की..

Sunday, 20 December 2015

कर्तव्यपरायणता:

गुजरात में एक प्रसिद्ध वकील रहा करते थे । एक बार
वे एक मुकदमा लड़ रहे थे कि गाँव में उनकी
पत्नी बीमार हो गई ।
.
वे उसकी सेवा करने गाँव पहुचे कि उन्ही
दिनों उनके मुक़दमे की तारीख पड़ गई ।
.
एक तरफ उनकी पत्नी का स्वास्थ्य था, तो
दूसरी और उनका मुकदमा ।
.
उन्हें असमंजस में देख पत्नी ने कहा -
"मेरी चिंता न करे, आप शहर जाये । आपके न रहने
पर कहीँ किसी बेकसूर को सजा न हो जाये
।"
.
वकील साहब दुःखी मन से शहर पहुचे
और जब वे अपने मुवक्किल के पक्ष में जिरह करने खड़े
हुए
ही थे कि किसी ने उनको एक
टेलीग्राम लाकर दिया ।
.
उन्होंने टेलीग्राम पढ़कर अपनी जेब में
रख लिया और बहस जारी रखी । अपने
सबूतो के आधार पर उन्होंने अपने मुवक्किल को
निर्दोष सिद्ध कर
दिया , जो कि वह था भी ।
.
सभी लोग वकील साहब को बधाई देने
पहुँचे और उनसे पूछने लगे कि टेलीग्राम में क्या लिखा
था ?
.
वकील साहब ने जब वह टेलीग्राम
सबको दिखाया तो वे अवाक् रह गए । उसमे उनकी
पत्नी की मृत्यु का समाचार था । लोगों ने
कहा - "आप अपनी बीमार
पत्नी को छोड़कर कैसे आ गए ?"
.
वकील साहब बोले -"आया तो उसी के
आदेश से ही था ; क्योकि वह जानती
थी कि बेकसूर को बचाने का कर्तव्य सबसे बड़ा धर्म
होता है "।
.
वे वकील साहब और कोई नहीं - सरदार
वल्लभ भाई पटेल थे , जो अपनी इसी
कर्तव्यपरायणता के कारण लौह पुरुष कहलाये।

Friday, 18 December 2015

सर मेरे पिताजी इस विमान के चालक:

यह कहानी एक आदमी कि है जो एक लम्बी हवाई यात्रा करके आ रहा था।
हवाई यात्रा ठीक ठाक चल रही थी तभी एक उदघोष हुआ कि कृपया अपनी सीट बेल्ट बांध लें क्योंकि कुछ समस्या आ सकती है। तभी एक और उदघोष हुआ कि , " मौसम खराब होने के कारण कुछ गड़बड़ी होने की सम्भावना है अतः हम आपको पेय पदार्थ नहीं दे पाएंगे। कृपया अपनी सीट बेल्ट्स कस कर बांध लें। " जब उस व्यक्ति ने अपने चारों ओर अन्य यात्रियों की ओर देखा तो पाया कि वे किसी अनिष्ट की आशंका से थोड़े भयभीत लग रहे थे। कुछ समय के पश्चात फिर एक उदघोष हुआ, " क्षमा करें, आगे मौसम ख़राब है अतः हम आपको भोजन की सेवा नहीं दे सकेंगे। कृप्या अपनी सीट बेल्ट बांध लें ।" और फिर एक तूफ़ान सा आ गया। बिजली कड़कने और गरजने की आवाजें हवाई जहाज़ के अन्दर तक सुनायी देने लगीं। बाहर का ख़राब मौसम और तूफ़ान भी भीतर से दिखाई दे रहा था। हवाई जहाज़ एक छोटे खिलौने की तरह उछलने लगा। कभी तो जहाज़ हवा के साथ सीधा चलता था और कभी एकदम गिरने लगता था जैसे कि ध्वस्त हो जायेगा।

वह व्यक्ति बोला की अब वह भी अत्यंत भयभीत हो रहा था और सोंच रहा था कि यह जहाज़ इस तूफ़ान से सुरक्षित निकल पायेगा अथवा नहीं। फिर जब उसने अपने चारों ओर अन्य यात्रियों की ओर देखा तो उसने पाया कि सब ओर भय और असुरक्षा का सा माहौल बन चुका था। तभी उसने देखा कि एक सीट पर एक छोटी सी लड़की सीट पर पैर ऊपर करके आराम से बैठी एक पुस्तक पढ़ने में डूबी हुयी थी। उसके चेहरे पर चिंता की कोई शिकन तक नहीं थी। वह कभी-कभी कुछ क्षड़ो के लिए अपनी ऑंखें बंद करती और फिर आराम से पढने लग जाती थी। जब सभी यात्री भयाक्रांत हो रहे थे, जहाज़ उछल रहा था तब भी यह लड़की भय एवं चिन्ता से कोसों दूर थी और आराम से पढ़ रही थी। उस व्यक्ति को अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ और जब वह जहाज़ अन्ततः सुरक्षित उतर गया। वह व्यक्ति सीधे उस लड़की के पास गया और उसने उससे पूँछा, कि इतनी खतरनाक परिस्तिथियों में भी वह बिलकुल नहीं डरी और एकदम शान्त किस प्रकार बनी हुयी थी। इस पर उस लड़की ने उत्तर दिया, " सर मेरे पिताजी इस विमान के चालक थे और वो मुझे घर ले जा रहे थे।
ऐसे ही अगर हम भगवान पर विश्वास करे तो हम कभी परेशान नहीं हो सकते क्यूंकि भगवान खुद वायदा करते है कि आप बच्चे बस एक कदम बढाओ तो मै आप बच्चों की तरफ हजार कदम बढ़ाएगे।

Wednesday, 16 December 2015

Get Inspired…. A story unheard !!!

Get Inspired……… Hats Off To This Lady

From 50 paise, she now earns Rs 200,000 a day. She started her career 31 years ago as an entrepreneur, selling eateries from a mobile cart on the Marina beach a midst all odds battling a failed marriage, coping with her husband, a multiple addict, and taking care of two kids.

Today, she has overcome the hurdles and owns a chain of restaurants.
She married against the will of her parents. Unfortunately, the marriage failed but her parents never forgave her and she was on her own along with 2 children.

” I knew I should either succumb to the burden or fight; I decided to fight my lonely battle.” she said. She started selling pickles, squashes and jams she made at home.

Eventually she started her own cart on Marine Drive, Mumbai. On the first she just sold one cup of coffee, making 50 paise the first day. But she never lost hope and earned as high as 25,000 rs a day.

One day the Slum Clearance Board gave her an offer to run the canteen at their office with a proper kitchen. The chairman met her during her morning walk. It was a huge success. Thereafter, she never looked back.

She suffered the second shock of her life in 2004 when she lost her daughter and son-in-law in a road accident. The ambulance refused to carry their dead bodies. Finally, somebody carried all the dead bodies in the boot of a car. She couldn’t bear them scene and broke down.

That is when she decided to keep an ambulance on that very spot to help
people whether the victims are alive or dead. It is in memory of her daughter.

Today Patricia along with her son runs the chain of restaurant ‘Sandeepha’ in her daughter’s memory and around 200 people work under her.

She was awarded ‘Ficci entrepreneur of the year’ in 2010.

Believe in yourself and your vision of the future.  Surround yourself with those who believe in you and will help you achieve your goals.  Keep your dream alive despite the challenges along the way.

There will always be those who try to steal your dream by laughter or criticism.  They cannot understand what drives you to always want more.

In Safety, there is no failure-neither is there success.  Only by taking the risks that others fear can you achieve greatness.

Change can be frightening, but only by changing can you experience growth.  Only by challenging yourself to do what seems impossible can you ever know how much you can achieve.

There is only one key to success: never quit until you win.  It may require a lot of changing, but you can do it.  The seed of greatness lies within you.  Nurture it, and there will be nothing you can’t do.

Remember… there is a deeper strength and amazing abundance of peace available to you.  Draw from this well; call on your faith to uphold you.

Life continues around us, even when our troubles seem to stop time.  There is always good in life.

Take a few minutes to distract yourself from your concerns–long enough to draw strength from a tree or to find pleasure in a bird’s song.

Return a smile; realize that life is a series of levels, cycles of ups and downs — some easy, some challenging. 

Through it all, we learn; we grow strong in faith; we mature in understanding.

The difficult times are often the best teachers, and there is good to be found in all situations.

Reach for the good.

Be strong, and don’t give up.

Good morning:

life demands struggle.
Those who have everything given to them become lazy, selfish, and insensitive to the real values of life.
The very striving and hard work that we so constantly try to avoid is the major building block in the person we are today.

सम्पूर्ण  जीवन  संघर्ष  की  मांग  करता  है।
जिन्हें  सबकुछ  बैठे -बैठे  मिल  जाता  है वो  आलसी , स्वार्थी  और  जीवन  के  वास्तविक  मूल्यों  के  प्रति  असंवेदनशील  हो  जाते  हैं।
अथक  प्रयास  और  कठिन  परिश्रम   जिससे  हम  बचने  की  कोशिश  करते  हैं  दरअसल  वही  हम  आज  जो  व्यक्ति  हैं  उसका  प्रमुख   निर्माण  खंड  है।

~ Ralph Ransom

Tuesday, 15 December 2015

I could pay her debt after years, in hospital

I was on my afternoon rounds, when I noticed an altercation outside the out-patient clinic (OPD) between a ward-boy and an elderly lady. The ward-boy told me she was insisting on being admitted to hospital. It was nearly 3 pm and the OPD was closed for the day. "But she just won't listen, sir, and calls me names." The old lady lifted her rolled up umbrella and smote him upon his trouser seat. I glanced at the old lady and the little boy with her, who, a bit intimidated, was hiding behind her. The woman turned to me angrily and in rapid Marathi, said she was coming from Ratnagiri and that she had travelled long and hard in a crowded train and she didn't have a place to stay and was hungry and tired, but this idiot was trying to push her away and he was a donkey and would I please admit her? "Admit me, my Prince" she concluded, a trifle breathless, patting my face.

She was old, real old. Gnarled hands like distorted tree-branches, thinned out hair white as snow, toothless gums except for a canine in the upper jaw and thick-lens spectacles held up with copper wire. Tobacco-spittle trickled out of her mouth. She told me she had found a lump in her neck that "jumped up and down while swallowing" and a village doctor had recommended she come to "Tata", a common reference to the Tata Memorial Hospital for cancer in Mumbai. I looked from her to the ward-boy who was shaking his head warningly. The old woman noticed the ward-boy's antics and cracked another smart one on his backside with her umbrella. Smiling, I told the ward-boy to escort her to my office upstairs and order whatever she and her grandson wanted to eat from the cafeteria. I took the indignant ward-boy aside and told him, "Think of her as your own grandmother. Don't mind her abuse, she is tired and hungry." I told the woman that I would be with her in half an hour and continued on my rounds.

By the time I got back to my office it was almost 4 pm. The old lady was lying down on a tattered sheet, her grandson curled up against her, both fast asleep. I told my secretary to let them lie there for another half hour and not to let any visitors into my office, then I went down to the ward to ask one of the nurses to wake her up after that time and bring her down for a physical examination.

When she came down, she was distraught for having slept off. She wished a thousand blessings upon me and my family for having fed her and her grandson and once again repeated her request for admission. Where will I go today, she asked. Her bewildered grandson stuck to her, but allowed me to hoist him onto a revolving chair. He scrambled down immediately but a few minutes later climbed back on his own and began turning round on it.

While examining her thyroid, I looked at her face closely. In the spotlight her face seemed oddly familiar and I sat back, looking at her and trying my best to recall her to memory. She sat waiting, giving me her toothless smile. Her action of beating the ward boy on his behind with her rolled up umbrella seemed to hold the key, and all of a sudden, the years fell away and I was again ten years old, returning from school with my "ayah", breaking free from her restraining hand while crossing the road and getting caught and being spanked on the trouser seat with her rolled up umbrella. "Aayee" (Mother in Marathi) is what I used to call her, and it doubled as a cry of distress too, when being spanked. Could it be? It had to be! How many years ago was it - Aayee must be over eighty now. Choked with a tenderness that clutched my heart, I asked the old lady if she remembered working in Bombay's Matunga, to look after a little boy, take him to school, bring him back, feed him, bathe and dress him etc., a sort of governess-cum-maid to him. Both his parents worked for the Railways and lived in quarters overlooking the rail tracks. His name was Unni and he was a mischievous fellow and you used to beat him on his trouser bottom with your umbrella. Did she remember?

"Ayee" chuckled and repeated "Unni-baba" a few times when I told her all this and playfully pulled my ears, another gesture she had been addicted to. I admitted her for the night in our ward, got her thyroid scanned the next morning, aspirated the fluid from it and decided there was no active surgery or other treatment she needed - she only needed to be kept under observation. I asked her to return after three months and to bring her son, the little boy's father, when she came. I told her I wished to take her home and introduce her to the wife and the kids. She said she had to return to her village but would come next time. I got nurse to buy her a nice sari and for little Eknath a trouser and shirt. I offered her some money to take care of incidental expenses but she turned it down. She left, pleased with her visit, promising to return after three months. Eknath clutched a Cadbury's bar and waved goodbye.

That night discussing her at home, we decided that we would send "Ayee" a monthly pension and if possible fix a good school for Eknath in Mumbai or if that were not possible fund his education. Feeling a sense of "something-attempted-something-done", we went to bed.

Two months later her son, (Eknath's father) came to the hospital to tell me that his mother passed away quietly in her sleep a month earlier. She had told them she had met her "son" on her last visit. I don't know if she actually remembered me but I was grateful to her for saying that she did.
( Dr Narendra Nair, Tata Memorial Cancer Hospital)

Monday, 14 December 2015

लिखते ही तेरा नाम:

Bansi:

लिखते ही तेरा नाम...
💐🌹💐🌹💐🌹
महक उठते हैं पन्नें.....

Bansi:

जो दरख़्त सूखे ठूंठ नजर आते हैं....

जख्म जरूर वो कुछ गहरे खाते हैं....

Bansi:

अफवाह थी की मेरी तबियत ख़राब हैं,

लोगो ने पूछ पूछ के बीमार कर दिया

Bansi:

फैसला उसका ... मंज़िल उसकी ...

ज़रा सा फिसला तो कहने लगा ...

राय मेरी  थी ..!!

Bansi:

मोहब्बत का कोई रंग नही फिर भी वो रंगीन है,

प्यार का कोई चेहरा नही फिर भी वो हसीन हैं

Bansi:

ख़्वाबों में हूँ..
🌹🌹🌹
वहीं रहने दो मुझे..
🌸🌸🌸🌸🌸
हकीक़त हुआ ग़र..
तो तकलीफ़ हो जाऊँगा..।।

Bansi:

हमारी हँसीं अब ना जाने क्यूँ हमको गवारा नहीं,

अपने ही दर्द में हँसू ...मैं इतना भी आवारा नहीं .... !!

बुले शाह दी वाणी:

फकीर बुलेशाह से जब किसी ने पूछा कि आप इतनी गरीबी में भी भगवान का शुक्रिया कैसे करते हैं तो बुलेशाह ने कहा..

चढ़दे सूरज ढलदे देखे... बुझदे दीवे बलदे देखे.

हीरे दा कोइ मुल ना जाणे.. खोटे सिक्के चलदे देखे.

जिना दा न जग ते कोई, ओ वी पुत्तर पलदे देखे।

उसदी रहमत दे नाल बंदे , पाणी उत्ते चलदे देखे।

लोकी कैंदे दाल नइ गलदी,  मैं ते पत्थर गलदे देखे।

जिन्हा ने कदर ना कीती रब दी, हथ खाली ओ मलदे

देखे ....

कई पैरां तो नंगे फिरदे, सिर ते लभदे छावा,
मैनु दाता सब कुछ दित्ता, क्यों ना शुकर मनावा l

डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा

 [8:11 AM, 8/24/2023] Bansi Lal: डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा [8:22 AM, 8/24/2023] Bansi La...