कभी सागर छलका दिया कभी एक बूँद को तरसा दिया.....
तेरे प्यार और तेरी बेरुख़ी ने हमें क्या क्या मंज़र दिखा दिया.....
थक गया हूँ चलते-चलते, अब रुक जाना चाहता हूँ...
तन गया था बढ़ते-बढ़ते, अब झुक जाना चाहता हूँ....
ये आरज़ू थी कि मिलें और ऐसी कुछ रातें | तेरे सुकूत से कल रात बार रहीं बातें ||
रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके...
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है
आज की रात तुझे आखरी ख़त और लिख दूं,
कौन जाने यह दिया सुबह तक चले न चले
No comments:
Post a Comment