हाँ ठीक है मैं अपनी अना(ego) का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
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मत इतरा इतना, अपनी खामोशी पर
ए दोस्त,,,
हम न होंगे, तो ये खामोशी तेरे किस
काम की!
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न जाने कौन सा मंज़र नज़र में रहता है
तमाम उम्र मुसाफ़िर सफ़र में रहता है
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"मुट्ठी दुआओं की मां ने चुपके से सिर पर छोड़ दी...
और मैं नासमझ मुकद्दर का अहसान मानता रहा....
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बैठाकर यार को पहलू में रात भर ग़ालिब
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते
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*मुझको क्या हक, मैं किसी को मतलबी कहूँ..*
*मै खुद ही ख़ुदा को, मुसीबत में याद करता हूँ !*
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तेरी खुशबू से जो वाकिफ़ नहीँ हैं
वो फूलों की ग़ुलामी कर रहे हैं
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