मुन्तज़िर मैं ही नहीं रहता किसी आहट का
कान दरवाज़े पे उसके भी लगे रहते हैं
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हर्फ़- हर्फ़ बयाँ करता है मेरे अल्फाजों का
मेरे हर खयाल का ताल्लुक तुझसे है॥
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कर दी ना बर्बाद फिर , अच्छी खासी शाम
कमज़र्फों के हाथ में , और दीजिये जाम
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फिर से कर दे कोई सजा मुकर्रर
या इंतिहा कर दे इस कशमकश की॥
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आदत बहुत बुरी है कि,, आदत बना लेते है हम
मुमकिन होता नहीं जो,, वो चाहत बना लेते है हम॥
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गिरना ही था जो आपको.. तो सौ मक़ाम थे.,
ये क्या किया.. कि निगाहों से गिर कर तमाशा बन गए…
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तुम हो शामिल, बस तब तक महफ़िल चलेगी,
उसके बाद, बस कुछ लोग रहेंगे और भीड़ दिखेगी..
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मेरे घर से मयखाना इतना करीब ना था ऐ दोस्त।।।
तु दुर होता गया और मयखाना करीब आ गया।।।
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