कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसे..
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में..
क्यूँ पशेमाँ हो अगर वादा वफ़ा हो न सका
कहीं वादे भी निभाने के लिए होते हैं
ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ
तू आ के जा भी चुका है मैं इंतिज़ार में हूँ
-मुनीर नियाज़ी
कितनी ख़ामोश सी बेचैनियां दिल में होंगी
लब से जो लफ़्ज़ निकला भी वो परेशाँ ही निकला
इत्थे मेरी लाश तक नीलाम कर दित्ती गई
लथ्या कर्ज़ा ना फेर वी यार तेरे शहर दा
हरदम है यह डर फिर न बिगड़ जाये वो 'हसरत'
पहरों जिन्हें रो रो के हसाने में लगे हैं
मैं उस किताब का आख़िरी पन्ना था,
मैं ना होता तो कहानी ख़त्म न होती.
सख़्त हाथों से भी छूट जाती हैं कभी उंगलियाँ..
रिश्ते ज़ोर से नहीं तमीज़ से थामे जाते हैं..
नजाकत तो देखिये, की सूखे पत्ते ने डाली से कहा....
चुपके से अलग करना वरना लोगो का रिश्तों से भरोसा उठ जायेगा....
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