कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ,
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
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दुनीया का भी अज़ीब दस्तूर है फराज़,
बेवफाई करो तो रोते हैं, वफा करो तो रुलाते हैं
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ग़ुज़री तमाम उम्र, उसी शहर में जहाँ,
वाक़िफ़ सभी तो थे मगर पहचानता कोई न था
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उड़ते परिंदे देखे तो एहसास ये हुआ
कितनी कमी अभी भी हमारे सफ़र में है
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तख्लीक़ जिसने देखी वो दीवाना हो गया
जादू ज़रूर कोई तुम्हारे हुनर में है
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चेहरे में आइना कि आइने में चेहरा,
मालूम नहीं कौन किसे देख रहा है
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जो "प्राप्त" है, वो "पर्याप्त" है....
इन दो शब्दों में सुख बेहिसाब है....
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जहाँ इंसानियत वहशत के हाथों ज़ब्ह होती हो
जहाँ तज़लील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना
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