पितामह भीष्म के जीवन का एक ही पाप था कि उन्होंने समय पर क्रोध नही किया और जटायु के जीवन का एक ही पुन्य था उसने समय पर क्रोध किया। परिणाम स्वरुप एक को वाणों की शैया मिली और एक को प्रभु राम की गोद।
अतः क्रोध तब पुन्य बन जाता है जब वह धर्म एवं मर्यादा की रक्षा के लिए किया जाये और वही क्रोध तब पाप बन जाता है जब वह धर्म व मर्यादा को चोट पहुँचाता हो।
शांति तो जीवन का आभूषण है। मगर अनीति और असत्य के खिलाफ जब आप क्रोधाग्नि में दग्ध होते हो तो आपके द्वारा गीता के आदेश का पालन हो जाता है। मगर इसके विपरीत किया गया क्रोध आपको पशुता की संज्ञा भी दिला सकता है। धर्म के लिए क्रोध हो सकता है, क्रोध के लिए धर्म नहीं।
Tuesday, 3 March 2015
क्रोध धर्म की रक्षा के लिए पुण्य बन जाता है
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